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________________ ७६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ उद्वेलना - प्रकृतियों का देना इष्ट मानेंगे। यथा कषायप्राभृतचूर्णि में मोहनीय की मात्र दो प्रकृतियाँ उद्वेलना - प्रकृतियाँ स्वीकार की गई हैं : सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व - प्रकृति । किन्तु पंचसंग्रह और कर्मप्रकृति में मोहनीय की उद्वेलना - प्रकृतियों की संख्या २७ है, यथा- दर्शनमोहनीय की ३, लोभसंज्वलन को छोड़कर १५ कषाय और ९ नोकषाय । कषायप्राभृतचूर्णि का पाठ - " ५८. सम्मामिच्छत्तस्य जहण्णट्ठिदिविहत्ती कस्स? चरिमसमयउव्वेल्लमाणस्स ।" (कसायपाहुडसुत्त/ पृ.१०१) “३६. एवं चेव सम्मत्तस्स वि।" ( वही / पृ. १९० ) । पंचसंग्रह - प्रदेशसंक्रम का पाठ एवं उव्वलणासंकमेण नासेइ अविरओहारं । सम्मोऽमिच्छमीसे सछत्तीसऽनियट्टि जा माया ॥ ७४ ॥ इसके सिवाय पञ्चसंग्रह के प्रदेशसंक्रमप्रकरण में एक यह गाथा भी आई है, जिससे भी उक्त विषय की पुष्टि होती है अ० १२ / प्र० ४ 44 इसमें बतलाया है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की मिथ्यादृष्टि जीव उद्वेलना करता है, पंचानवे प्रकृतियों की सत्तावाला एकेन्द्रिय जीव देवद्विक की उद्वेलना करता है, उसके बाद वही जीव वैक्रियषट्क की उद्वेलना करता है, सूक्ष्म त्रस अग्निकाि और वायुकायिक जीव क्रम से उच्चगोत्र और मनुष्यद्विक की उद्वेलना करता है तथा अनिवृत्तिबादर जीव एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त ३६ प्रकृतियों की उद्वेलना करता है । सम्म - मीस मिच्छो सुरदुगवेडव्विछक्कमेगिंदी । सुहुमतसुच्चमणुदुगं अंतमुहुत्तेण अणियट्टी ॥ ७५ ॥ यहाँ पंचसंग्रह में निरूपित पाठ का उल्लेख किया है, कर्मप्रकृति की प्ररूपणा इससे भिन्न नहीं है। उदाहरणार्थ, जिस प्रकार पञ्चसंग्रह में अनन्तानुबन्धीचतुष्क की परिगणना उद्वेलना-प्रकृतियों में की गई है, उसी प्रकार कर्मप्रकृति में भी उन्हें उद्वेलनाप्रकृतियाँ स्वीकार किया है। कर्मप्रकृतिचूर्णि में प्रदेशसत्कर्म की सादि - अनादि प्ररूपणा करते हुए लिखा है 'अणंताणुबंधीणं खवियकम्मंसिगस्स उव्वलंतस्स एगठितिसेसजहन्नगं पदेससंतं एगसमयं होति । " Jain Education International यह एक उदाहरण है। अन्य प्रकृतियों के विषय में मूल और चूर्णि का आशय इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। किन्तु जैसा कि पूर्व में निर्देश कर आये हैं, कषायप्राभृत For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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