________________
७७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१२ / प्र०४ में किस कषाय में कितनी कृष्टियाँ होती हैं इस विषय की प्ररूपणा करनेवाली कषायप्राभृत की १६३ क्रमांक गाथा उद्धृत पाई जाती है। सो इससे यही तो समझा जा सकता है कि श्वेताम्बरपरम्परा में क्षपणाविधि की सांगोपांग प्ररूपणा न होने से शतकचूर्णि के कर्ता ने किस कषाय की कितनी कृष्टियाँ होती हैं, इस विषय का विशेष विवेचन प्रायः कषायप्राभृत के आधार से किया है। यह समझकर ही उक्त टिप्पणकार ने प्रमाण-स्वरूप उक्त गाथा उद्धृत की होगी।
३. तीसरा उल्लेख सप्ततिकाचूर्णि का है। इसमें सूक्ष्मसाम्पराय-सम्बन्धी कृष्टियों की रचना का निर्देशकर उनके लक्षण को कषायप्राभृत के अनुसार जानने की सूचना सप्ततिकाचूर्णिकार ने इसीलिए की जान पड़ती है कि श्वेताम्बरपरम्परा में इस प्रकार का सांगोपांग विवचेन नहीं पाया जाता। सप्ततिकाचूर्णि का उक्त उल्लेख इस प्रकार
"तं वेयंतो बितियकिट्टीओ तइयकिट्टीओ य दलियं घेतूणं सुहमसांपराइयकिट्टीओ करेइ। तेसिं लक्खणं जहा कसायपाहुडे।"
४. चौथा उल्लेख भी सप्ततिकाचूर्णि का है। इसमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में जो अनेक वक्तव्य हैं उन्हें कषायप्राभृत और कर्मप्रकृतिसंग्रहणी के अनुसार जानने की सूचना की गई है। सप्ततिकाचूर्णि का वह उल्लेख इस प्रकार है
"एत्थ अपुव्वकरण-अणियट्टिअद्धासु अणेगाइ वत्तव्वगाइं जहा कसायपाहुडे कम्मपगडिसंगहणीए वा तह वत्तव्वं।"
सो इस विषय में इतना ही कहना है कि कर्मप्रकृतिसंग्रहणी स्वयं एक संग्रहरचना है। अतः उसमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के कालों में होनेवाले कार्यविशेषों का जो भी निर्देश उपलब्ध होता है, वह सब अन्य ग्रन्थ के आधार से ही लिया गया होना चाहिए। इस विषय में जहाँ तक हम समझ सके हैं, कषायप्राभूतचूर्णि
और कर्मप्रकृतिचूर्णि की तुलना करने पर ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि कर्मप्रकृतिचूर्णिकार के समक्ष कषायप्राभृतचूर्णि अवश्य रही है। यथा
१०२. "चरिमसमयमिच्छाइट्ठी से काले उवसंतदंसणमोहणीओ।" १०३. "ताधे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा।" कषायप्राभृतचूर्णि।
अब इसके प्रकाश में कर्मप्रकृति-उपशमनाकरण गाथा १९ की चूर्णि पर दृष्टिपात कीजिए
"चरिमसमयमिच्छाहिट्ठी से काले उवसमसम्मद्दिठ्ठि होहि त्ति ताहे बितीयट्ठितीते तिहा अणुभागं करेति।"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org