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________________ ७६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० १२ / प्र० ४ हैं । इनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि, ये दोनों श्वेताम्बर आचार्यों की कृति न होकर दिगम्बर आचार्यों की ही अमर कृति हैं । २. कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि को श्वेताम्बर आचार्यों की कृति सिद्ध करने के लिए उनका दूसरा तर्क है कि दिगम्बर - आचार्यकृत ग्रन्थों पर श्वेताम्बर आचार्यों की टीकाएँ और श्वेताम्बर आचार्यकृत ग्रन्थों पर दिगम्बर आचार्यों की टीकायें हैं आदि । उसी प्रकार कषायप्राभृत मूल तथा उसकी चूर्णि पर दिगम्बर - आचार्यों की टीका होने मात्र से उन्हें दिगम्बर आचार्यों की कृतिरूप से निश्चित नहीं किया जा सकता। (प्रस्तावना/ पृ. ३०)। यह उनका तर्क है। किन्तु श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित कर्मग्रन्थों से कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि में वर्णित पदार्थभेद को स्पष्ट रूप से जानते हुए भी वे ऐसा असत् विधान कैसे करते हैं, इसका किसी को भी आश्चर्य हुए बिना नहीं रहेगा । "मुद्रित कषायप्राभृत चूर्णिनी प्रस्तावनामां रजु थयेली मान्यतानी समीक्षा" इस उपशीर्षक के अन्तर्गत उन्होंने पदार्थभेद के कतिपय उदाहरण स्वयं उपस्थित किये हैं। इन उदाहरणों को उपस्थित करते हुए उन्होंने कषायप्राभृत के साथ कषायप्राभृतचूर्णि कर्मप्रकृतिचूर्णि, इन ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं । किन्तु श्वेताम्बर - पंचसंग्रह को दृष्टिपथ में लेने पर विदित होता है कि उक्त ग्रन्थ भी कषायप्राभृतचूर्णि का अनुसरण न कर कर्मप्रकृतिचूर्णि का ही अनुसरण करता है। यथा १. मिश्र गुणस्थान में सम्यक्त्व प्रकृति भजनीय है, इस मत का प्रतिपादन करनेवाली पञ्चसंग्रह के सत्कर्मस्वामित्व की गाथा इस प्रकार है - " सासयणंमि नियमा सम्मं भज्जं दससु संतं " ॥ १३५॥ कर्मप्रकृतिचूर्णि से भी इसी अभिप्राय की पुष्टि होती है । ( चूर्णिसत्ताधिकार / प. ३५) [ प्रदेशसंक्रम / प. ९४] । २. संज्वलन क्रोधादिका जघन्य प्रदेशसंक्रम अन्तिम समयप्रबद्ध का अन्यत्र संक्रम करते हुए क्षपकके अन्तिम समय में सर्वसंक्रम से होता है। यह कर्मप्रकृति - चूर्णिकार का मत है और यही मत श्वेताम्बर - पंचसंग्रह का भी है । यथा पुंसंजलणतिगाणं जहण्णजोगिस्स खवगसेढीए । सगचरिमसमयबद्धं जं छुभइ सगंतिमे समए ॥ ११९ ॥ ३. प्रथमोपशम-सम्यग्दृष्टि के, सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय मिथ्यात्व के तीन पुंज होने पर एक आवलिकाल तक सम्यग्मिथ्यात्व का सम्यक्त्व में संक्रम नहीं होता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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