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अ० १२ / प्र० ४
कसायपाहुड / ७६५ आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभृत आदि में पदेसग्ग शब्द का प्रयोग हुआ है ।
यथा
"तं वेयंतो बितियकिट्टीओ ततियकिट्टीओ य दलियं घेत्तूणं सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेइ ।" सप्ततिकाचूर्णि / पृ. ६६ अ. (देखो उक्त प्रस्तावना / पृ.३२) । आवलियं लंघऊण तद्दलियं ।
इच्छियठितिठाणाओ
सव्वेसु
वि निक्खिवइ ठितिठाणेसु उवरिमेसु ॥ २ ॥ पंचसंग्रह / उद्वर्तनापवर्तनाकरण ।
उवसंतद्धा
अंते विहिणा ओकड्डियस्स दलियस्स । अज्झवसाणणुरुवस्सुदओ तिसु
एक्कयरयस्स ॥ २२ ॥ कर्मप्रकृति/उपशमनाकरण / पत्र १७ ।
अब दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों पर दृष्टि डालिए
विदियादो पुण पढमा संखेज्जगुणा विदियादो पुण तदिया कमेण क. प्रा. मूल (क.पा. / भाग १५/पृ.७३)।
भवे पदेसग्गे । सेसा विसेसहिया ॥ १७० ॥
'ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकड्डियूण सुहुमसांपराइयकिट्टीओ णाम करेदि ।" कषायप्राभृतचूर्णि / मूल / पृ. ८६२ । (क.पा./ भाग १५/ गा. २०६ / चूर्णिसूत्र / पृ. २९५) ।
" लोभस्स जहण्णियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि ।" (धवला / ष .ख. / पु.६/पृ.३७८-३७९) ।
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आ - श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह में अविरत के लिए अजय या अजत शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गये कषायप्राभृत और षट्खण्डागम में यह शब्द इस अर्थ में दृष्टिगोचर नहीं होता । इनके लिए कर्मप्रकृति (श्वे० ) पर दृष्टिपात कीजिए -
वेयगसम्मद्दिट्ठी चरित्तोहुवसमाइ चिट्ठतो ।
अजउ देशजई वा विरतो व विसोहिअद्धाए ॥ २७ ॥
उपश. करण ।
इसी प्रकार पञ्चसंग्रह में भी इस शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है । इनके अतिरिक्त वरिसवर, उव्वलण आदि शब्द हैं, जो श्वेताम्बरपरम्परा के कार्मिक ग्रंथों में ही दृष्टिगोचर होते हैं, दिगम्बरपरम्परा के ग्रंथों में नहीं। ये कतिपय उदाहरण
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