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________________ ७६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० १२ / प्र० ४ इस चूर्णिसूत्र की रचनाकर और उनके अन्त में 'सुत्तसमुक्कित्तणाए समत्ताए(क.पा./ भाग ८/ पृ.८८) इस चूर्णिसूत्र की रचना कर उन्हें सूत्ररूप में स्वीकार किया है। इस प्रकार सब मिलाकर उक्त ४७ सूत्रगाथाओं के मूल कषायप्राभृत सिद्ध हो जाने पर क्रमांक १० से लेकर 'आवलिय अणायारे' (क.पा./ भाग १ / पृ. ३०१ ) इत्यादि ६ सूत्र गाथाएँ भी मूल कषायप्राभृत ही सिद्ध होती हैं, क्योंकि यद्यपि आचार्य यतिवृषभ ने इनके प्रारम्भ में या अन्त में इनकी स्वीकृति - सूचक किसी चूर्णिसूत्र की रचना नहीं की है, फिर भी कषायप्राभृत पर दृष्टि डालने से और खासकर उपशमना - क्षपणा प्रकरण पर दृष्टि डालने से यही प्रतीत होता कि समग्रभाव से अल्पबहुत्व की सूचक इन सूत्रगाथाओं की रचना स्वयं गुणधर आचार्य ने ही की है। इसके लिए प्रथमोपशमसम्यक्त्व-अर्थाधिकार की क्रमांक ९८ गाथा पर दृष्टिपात कीजिये । इतने विवेचन से स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ को ये मूल कषायप्राभृत-रूप से ही इष्ट रही हैं । अतः सूत्रगाथाओं के संख्याविषयक उत्तरकालीन मतभेदों को प्रामाणिक मानना और इस विषय पर टीका-टिप्पणी करना उचित प्रतीत नहीं होता । आचार्य वीरसेन ने गाथाओं के संख्याविषयक मतभेद को दूर करने के लिए जो उत्तर दिया है, उसे इसी संदर्भ में देखना चाहिए । इस प्रकार श्वे० मुनि हेमचन्द्रविजय जी ने कषायप्राभृत का परिमाण कितना है, इस पर खवगसेढि ग्रन्थ की अपनी प्रस्तावना में जो आशंका व्यक्त की है, उसका निरसन कर अब आगे हम उनके उन कल्पित तर्कों पर सांगोपांग विचार करेंगे, जिसके आधार से उन्होंने कषायप्राभृत को श्वेताम्बर - आम्नाय का सिद्ध करने का असफल प्रयत्न किया है। १. इस विषय में उनका प्रथम तर्क है कि दिगम्बर ज्ञानभण्डार मूडबिद्री में कषायप्राभृत मूल और उसकी चूर्णि उपलब्ध हुई है, इसलिए वह दिगम्बर-आचार्य की कृति है, यह निश्चय नहीं किया जा सकता। (प्र. पृ. ३०)। किन्तु कषायप्राभृत मूल और उसकी चूर्णि, ये दोनों मूडबिद्री से दिगम्बर- ज्ञान भण्डार में उपलब्ध हुए हैं, मात्र इसीलिए तो किसी ने उन दोनों को दिगम्बर आचार्यों की कृति हैं, ऐसा नहीं कहा है। किन्तु उक्त दोनों के दिगम्बर- आचार्यों द्वारा प्रणीत होने के अनेक कारण हैं। उनमें से एक कारण एतद्विषयक ग्रन्थों में श्वेताम्बर आचार्यों की शब्दयोजना - परिपाटी से भिन्न उसमें निबद्ध शब्दयोजना - परिपाटी है । यथा अ-श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखे गए सप्ततिकाचूर्णि, कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह आदि में सर्वत्र जिस अर्थ में दलिय शब्द का प्रयोग हुआ है, उसी अर्थ में दिगम्बर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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