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अ०१२ / प्र०४
कसायपाहुड / ७६३ यह वही गाथा है जिसके आधार से यह कहा जाता है कि कषायप्राभृत की कुल १८० सूत्रगाथाएँ हैं। अब यदि इसे प्रक्षिप्त माना जाता है, तो ऐसे कई प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिनका सम्यक् समाधान इसे मूल गाथा मानने पर ही होता है। यथा
१. प्रथम तो गुणधर आचार्य को कषायप्राभृत के १५ ही अर्थाधिकार इष्ट रहे हैं, इसे जानने का एक मात्र उक्त सूत्रगाथा ही साधन है, अन्य नहीं। क्रमांक १३
और १४ सूत्रगाथाएँ मात्र अर्थाधिकारों का नामनिर्देश करती हैं। वे १५ ही हैं, इसका ज्ञान मात्र इसी सूत्रगाथा से होता है और तभी क्रमांक १३ और १४ सूत्रगाथाओं के बाद "अत्थाहियारो पण्णारसविहो अण्णेण पयारेण वुच्चदि" (क.पा./भाग १ /पृ.१६९) इस प्रकार चूर्णिसूत्र की रचना उचित प्रतीत होती है।
२. दूसरे उक्त गाथा से ही हम यह जान पाते हैं कि कषायप्राभृत की सब गाथाएँ उसके १५ अर्थाधिकारों के विवेचन में विभक्त नहीं है। किन्तु उनमें से कुल १८० गाथाएँ ही ऐसी हैं, जो उनके विवेचन में विभक्त हैं। उक्त गाथा प्रकृत का विधान तो करती है, अन्य का निषेध नहीं करती। यहाँ प्रकृत १५ अर्थाधिकार हैं। उनमें १८० सूत्रगाथाएँ विभक्त हैं। इतना मात्र निर्देश करने के लिए आचार्य गुणधर ने इस सूत्रगाथा की रचना की है, १५ अर्थाधिकारों से सम्बद्ध गाथाओं का निषेध करने के लिए नहीं।
इस प्रकार इस दूसरी सूत्रगाथा के भी ग्रन्थ का मूल अंग सिद्ध हो जाने पर इससे आगे की क्रमांक ३ से लेकर १२ तक की १० सूत्रगाथाएँ भी कषायप्राभृत का मूल अंग सिद्ध हो जाती हैं, क्योंकि उनमें १५ अर्थाधिकारों-सम्बन्धी १८० गाथाओं में से किस अर्थाधिकार में कितनी सूत्रगाथाएँ आई हैं, एक मात्र इसी का विवेचन किया गया है, जो उक्त दूसरी सूत्रगाथा के उत्तरार्ध के अनुसार ही है। उसमें उन्हें सूत्रगाथा कहा भी गया है। यथा"वोच्छामि सुत्तगाहा जइ गाहा जम्मि अत्थम्मि।"
(क.पा. / भाग २ / गा.२)। इसी प्रकार संक्रम-अर्थाधिकार (क.पा./भाग ८) में जो 'अट्ठावीस' इत्यादि ३५ सूत्रगाथाएँ आई हैं, वे भी मूल कषायप्राभृत ही हैं और इसीलिए आचार्य यतिवृषभ ने उनके प्रारंभ में
"एत्तो पयडिट्ठाणसंकमो तत्थ पुव्वं गमणिज्जा सुत्तसमुक्कित्तणा।" (क.पा./ भाग८/ पृ. ८१)।
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