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७६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० १२ / प्र० ४
उनमें भी सर्वप्रथम हम मूल कषायप्राभृत के ग्रंथ-परिमाण पर विचार करेंगे, क्योंकि श्वेताम्बर मुनि हेमचन्द्रविजय जी ने अपनी प्रस्तावना ८ पृष्ठ २९ में कषायप्राभृत के पन्द्रह अधिकारों में विभक्त १८० गाथाओं के अतिरिक्त शेष ५३ गाथाओं के प्रक्षिप्त होने की सम्भावना व्यक्त की है । किन्तु उसके चूर्णिसूत्रों पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि आचार्य श्री यतिवृषभ के समक्ष पन्द्रह अर्थाधिकारों में विभक्त १८० सूत्रगाथाओं के समान कषायप्राभृत के अंगरूप से उक्त ५३ सूत्र गाथायें भी रही हैं। इन पर कहीं उन्होंने चूर्णिसूत्रों की रचना की है और कहीं उन्हें प्रकरण के अनुसार सूत्ररूप में स्वीकार किया है।
जिनके विषय में श्वेताम्बर मुनि हेमचन्द्र जी ने प्रक्षिप्त होने की सम्भावना व्यक्त की है, उनमें से 'पुव्वम्मि पंचमम्मि दु' (क.पा./ भाग १ / गा. १ / पृ. ९) यह प्रथम सूत्र गाथा है, जो ग्रन्थ के नामनिर्देश के साथ उसकी प्रामाणिकता को सूचित करती है । इस पर चूर्णिसूत्र है—
'णाणप्पवादस्स पुव्वस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स" इत्यादि । (क.पा./ भाग १ / पृ.११) ।
अब यदि इसे कषायप्राभृत की मूलगाथा नहीं स्वीकार किया जाता है तो -
१. एक तो ग्रंथ का नामनिर्देश आदि किये बिना ग्रन्थ के १५ अर्थाधिकारों से कुछ का निर्देश करनेवाली नं. १३ की 'पेज्ज - दोसविहत्ती' इत्यादि सूत्रगाथा (क.पा./ भाग १/पृ.१६३) से हमें ग्रन्थ का प्रारंभ मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है, जो संगत प्रतीत नहीं होता ।
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२. दूसरे उक्त प्रथम गाथा के अभाव में नं. १३ की उक्त सूत्रगाथा के पूर्व चूर्णिसूत्रों द्वारा पाँच प्रकार के उपक्रम के साथ 'अत्थाहियारो पण्णारसविहो' (क.पा./ भाग १/पृ.१३६) इस प्रकार का निर्देश भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उक्त प्रकार से चूर्णिसूत्रों की रचना तभी संगत प्रतीत होती है, जब उनके रचे जानेवाले ग्रन्थ का मूल या चूर्णि में नामोल्लेख किया गया हो ।
इस प्रकार सूक्ष्मता से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि 'पुव्वम्मि पंचमम्मि दु' इत्यादि गाथा प्रक्षिप्त न होकर १८० गाथाओं के समान ग्रन्थ की मूल गाथा ही है ।
दूसरी सूत्रगाथा है ' गाहासदे असीदे' इत्यादि। (क.पा./भा.१/गा.२/पृ.१३९) । इसके पूर्व पाँच प्रकार के उपक्रम के भेदों का निर्देश करते हुए अन्तिम चूर्णिसूत्र है" अत्थाहियारो पण्णारसविहो" (क.पा. / भा.१ /पृ. १६९) ।
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