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________________ चतुर्थ प्रकरण कसायपाहुड श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं श्वेताम्बरमुनि श्री हेमचन्द्रविजय जी ने कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों को श्वेताम्बरीय ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया था । उसका सप्रमाण खण्डन सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने एक लेख में किया है, जो भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा (उ.प्र.) द्वारा प्रकाशित (जयधवलासहित) 'कसायपाहुड' (द्वितीय संस्करण) के १२वें भाग में पृष्ठ २७ से ४३ तक 'विषयपरिचय' शीर्षक के अन्तर्गत निबद्ध है। उसे मैं शीर्षकसहित ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ कषायप्राभृत दिगम्बर आचार्यों की ही कृति है लेखक : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री श्वेताम्बर - मुनि श्री गुणरत्नविजय जी ने कर्मसाहित्य तथा अन्य कतिपय विषयों के अनेक ग्रंथों की रचना की है। उनमें से एक खवगसेढी ग्रन्थ है। इसकी रचना में अन्य ग्रंथों के समान कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि का भरपूर उपयोग हुआ है । वस्तुतः श्वेताम्बरपरम्परा में ऐसा कोई एक अन्य ग्रन्थ नहीं है, जिसमें क्षपकश्रेणी का सांपोपांग विवेचन उपलब्ध होता हो । श्री मुनि गुणरत्नविजय जी ने अपने सम्पादकीय में इस तथ्य को स्वयं इन शब्दों में स्वीकार किया है— 44 'समाप्त थयावाद क्षपकश्रेणी ने विषय संस्कृतमा गद्यरूपे लखवो शरूकर्यो । ४थी ५ हजार श्लोक प्रमाण लखाण थयावाद मने विचार आव्यो के जुदा ग्रंथोंमां छूटी छपाई वर्णवाली क्षपक श्रेणी व्यवस्थित कोई एक ग्रंथमां जोवामा आवती नथी। जैनशासनमां महत्त्वनी गणती ‘क्षपकश्रेणी' ना जुदा ग्रन्थोंमां संगृहीत विषयनो प्राकृतभाषामा स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार थाय, तो ते मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओं ने घणो लाभदायी बने । " उनके इस वक्तव्य से स्पष्ट ज्ञान होता है कि इस ग्रंथ के प्रणयन में जहाँ उन्हें कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि का भरपूर सहारा लेना पड़ा, वहाँ उनके सहयोगी तथा प्रस्तावना-लेखक श्वे० मुनि श्री हेमचन्द्रविजय जी कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि को अपने मनगढन्त तर्कों द्वारा श्वेताम्बर - परम्परा का सिद्ध करने का लोभ संवरण न कर सके। आगे हम उनके उन कल्पित तर्कों पर संक्षेप में क्रम से विचार करेंगे, जिनके आधार से उन्होंने इन दोनों को श्वेताम्बरपरम्परा का सिद्ध करने का असफल प्रयत्न किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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