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७६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१२ / प्र०३ वस्तुतः मोहनीय के बावन पर्यायनाम एकान्त अचेलमुक्तिवादी मूलसंघ की विरासत हैं, जिसके उत्तराधिकारी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय हैं। वहीं से वे दिगम्बर-ग्रन्थ कसायपाहुड और श्वेताम्बरग्रन्थ समवायांग एवं भगवतीसूत्र में आये हैं।
अपना पूर्वमत स्वयं के द्वारा ही मिथ्या घोषित यापनीयपक्षपोषक उक्त विद्वान् ने आगे चलकर स्वयं अपना यह विचार बदल दिया है कि कसायपाहुड उत्तरभारतीय श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा का ग्रन्थ है। वे लिखते हैं
"गुणस्थानसिद्धान्त के विकास की दृष्टि से यह मानना होगा कि आर्यमंक्षु और नागहस्ती कर्मप्रकृतियों के विशिष्ट ज्ञाता थे, वे कसायपाहुड के वर्तमान स्वरूप के प्रस्तोता नहीं थे। मात्र यही माना जा सकता है कि कसायपाहुड की रचना का आधार उनकी कर्मसिद्धान्त-सम्बन्धी अवधारणाएँ हैं, क्योंकि आर्यमंक्षु और नागहस्ती का काल ई० सन् की दूसरी शताब्दी है। यदि हम कसायपाहुड में प्रस्तुत गुणस्थान की अवधारणा पर विचार करें, तो ऐसा लगता है कि कसायपाहुड की रचना गुणस्थानसिद्धान्त की अवधारणा के निर्धारित होने के बाद हुई है। अर्धमागधी आगमसाहित्य में, यहाँ तक कि प्रज्ञापना जैसे विकसित आगम और तत्त्वार्थसूत्र में भी गुणस्थान का सिद्धान्त सुव्यवस्थित रूप नहीं ले पाया था, जब कि कसायपाहुड गुणस्थानसिद्धान्त के सुव्यवस्थित रूप लेने के बाद ही रचा गया है। अतः यदि तत्त्वार्थ का रचनाकाल ईसा की दूसरीतीसरी शती है तो उसका काल ईसा की तीसरी-चौथी शती मानना होगा।" (जै.ध. या.स./पृ.११२)।
इस प्रकार यापनीयपक्षी विद्वान् ने अपने इस दूसरे मत से पहले मत को कि कसायपाहुड उत्तरभारत की अविभक्त-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा (श्वेताम्बर-यापनीयमातृपरम्परा) का ग्रन्थ है, स्वयं ही मिथ्या सिद्ध कर दिया है। और यह वे पहले ही घोषित कर चुके थे कि वह यापनीयपरम्परा में निर्मित नहीं हुआ है१८ तथा उपलब्ध कसायपाहुड शौरसेनी प्राकृत में है, इसलिए उसका श्वेताम्बरग्रन्थ होना भी वे अस्वीकार कर चुके हैं।१९ इसके अतिरिक्त अर्धमागधी में रचित कसायपाहुड के किसी काल में विद्यमान होने का कोई प्रमाण नहीं है। इस प्रकार अन्यथानुपपत्ति प्रमाण से 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के यापनीयपक्षधर लेखक ही उसे दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध कर देते हैं।
१८. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय/प्र.८७। १९. वही/ पृ.८५।
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