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२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० २
संवत् ४ की चैत्रशुक्ला चतुर्दशी को पट्ट पर आरूढ़ हुए थे) इन शब्दों से स्पष्ट है कि उक्त पट्टावलियों में विक्रम के राज्यारोहण वर्ष से ही विक्रम संवत् का आरंभ माना गया है। यदि विक्रम के जन्मवर्ष से उसका आरम्भ माना जाता, तो भद्रबाहु (द्वितीय) का संवत् २२ में पट्टारूढ़ होना बतलाया जाता । किन्तु ऐसा नहीं किया गया। इससे उक्त तथ्य में विवाद के लिए अवकाश नहीं रहता। पट्टावलीकारों ने प्रत्येक पट्टधर का विक्रम संवत् के अनुसार जो पट्टारोहणवर्ष दर्शाया है, प्रो० हार्नले ने स्वनिर्मित तालिका में तत्संगत ईसवी सन् भी प्रदर्शित किया है । (देखिए, तालिका इसी प्रकरण के शीर्षक २.१ तथा इसी अध्याय के अंत में 'विस्तृत सन्दर्भ' के अन्तर्गत) ।
इन पट्टावलीकारों को संस्कृत में निबद्ध नन्दिसंघीय पट्टावलियाँ पहले से उपलब्ध थीं। उनका ज्यों का त्यों अनुकरण करते हुए उन्होंने नये पट्टधरों के भी नाम स्वकृत पट्टावलियों में जोड़े हैं । इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेख किया है कि कौन पट्टधर किस स्थान का पट्टाधीश था । वस्तुतः स्थानविशेष के पट्टाधीश होने की प्रथा भट्टारकपीठों की स्थापना के साथ भट्टारकवर्ग में शुरू हुई थी । किन्तु इन नवीन पट्टावलीकारों ने दिगम्बराचार्यों के साथ भी स्थानविशेष के पट्टाधीश होने की कल्पना जोड़ दी और उन्हें भी स्वकल्पनानुसार विभिन्न स्थानों का पट्टाधीश घोषित कर दिया । उपर्युक्त दो पट्टावलियों के अलावा सन् १८९२ में जयपुर के पण्डित हरिदास शास्त्री से नन्दिसंघ की तीन और पट्टावलियाँ प्रो० हार्नले को प्राप्त हुई थीं। जिन्हें उन्होंने 'सी', 'डी' और 'ई' अक्षरों से चिह्नित किया है । १८ इनमें भी किंचित् भिन्नताओं के साथ उसी गुरुपरम्परा एवं स्थान-कालादि का उसी पद्धति से वर्णन है, जो 'ए' और 'बी' पट्टावलियों में है। इनकी प्रविष्टियों के दो उदाहरण 'सी' पट्टावली से नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं
"ऐसे पूर्वोक्त प्रकार भद्रबाहु भए । ता कैं पीछे और आचार्य अनुक्रम तैं भए है, सो किञ्चित् मात्र भद्रबाहु तैं लेकर याँ का वर्णन अनुक्रम तैं लिखिये है ॥ विक्रम राजा कूँ राज्यपदस्थ के दिन तैं संवत् केवल ४ के चैत्र शुक्ल १४ चतुर्दशी दिने श्रीभद्रबाहु आचार्य भये । ता की जाति ब्राह्मण । गृहस्थ वर्ष २४ चौबीस । दीक्षावर्ष ३० तीस । पट्टवर्ष २२ बाईस के उपरि मास १० दश दिन २७ सत्ताईस वहुरि विरहदिन ३ । तिन का सर्वायुवर्ष छिहत्तर ७६ । पुनर्मास ११ ग्यारह ॥ '
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१८. Prof. A. F. Rudolf Hoernle : Three Further Pattavalis of The Digambaras, The Indian Antiquary, Vol. XXI, March 1892, p.57. १९. The Indian Antiquary, Vol. XXI, March, 1892, p. 68.
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