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अ०८ / प्र० २ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / २७
१. वीर निर्वाण से ४७० वर्ष व्यतीत होने पर विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उनके जन्म के २२ वें वर्ष में द्वितीय भद्रबाहु पट्टारूढ़ हुए। इस प्रकार पट्टारोहण वर्ष ४७०+२२=४९२।
२. जन्म के बाद १८ वर्ष पूर्ण कर लेने पर वीर नि० सं० (४७०+१८) ४८८ में विक्रमादित्य का राज्यारोहण हुआ। राज्यारोहण के चौथे वर्ष में भद्रबाहु (द्वितीय) पट्ट पर विराजे। इस प्रकार पट्टारोहण वर्ष ४८८+४=४९२ ।
इसके अतिरिक्त 'ए' पट्टावली के कर्ता ने लोहाचार्य को भद्रबाहु (द्वितीय) के बाद न रखकर छठे पट्टधर उमास्वामी के पश्चात् रखा है। तथा धरसेन, पुष्पदन्त
और भूतबली को नन्दिसंघ या सरस्वतीगच्छ में परिगणित नहीं किया है। कर्ता ने नन्दिसंघ की उत्पत्ति इस प्रकार बतलायी है
"सुभद्राचार्य स्युं वर्ष २ विक्रम जन्म अर राज्य विक्रम की स्युं वर्ष ४ भद्रबाहु जी पाटि बैठा॥ भद्रबाहु शिष्य गुप्तिगुप्त। तस्य नामत्रयं। गुप्तिगुप्त १ अर्हद्वलि २ विशाखाचार्य ३॥ तस्य चत्वारि शिष्य। नन्दिवृक्षमूलेन वर्षायोगो धृतः सह ६ माघनन्दी तेन नन्दिसङ्घः स्थापितः। १॥ जिनसेननामतृणतले वर्षायोगो धृतः सह ६ वृषभः तेन वृषभसङ्घः स्थापितः। २॥ येन सिंहगुहायां वर्षायोगः स्थापितः सह ६ सिंहसङ्घ स्थापितवान्। ३॥ यो देवदत्तावेश्यागृहे वर्षायोगं स्थापितवान् सह१६ देवसङ्ख चकार ॥४॥"१७
अनुवाद-आचार्य सुभद्र के पट्टासीन होने के पश्चात् दूसरे वर्ष में विक्रमादित्य ने जन्म लिया। और विक्रम के राज्याभिषेक के चौथे वर्ष में भद्रबाहु (द्वितीय) पट्टारूढ़ हुए। भद्रबाहु के शिष्य गुप्तिगुप्त थे। उनके तीन नाम थे-१.गुप्तिगुप्त, २.अर्हदलि, ३.विशाखाचार्य। उनके शिष्यों की संख्या चार थी-१.माघनंदी, जिन्होंने नन्दिवृक्ष के नीचे वर्षायोग धारण किया था और नन्दिसंघ की स्थापना की थी, २.वृषभ, जिन्होंने 'जिनसेन' नामक वृक्ष के तले वर्षायोग धारण किया था और वृषभसंघ स्थापित किया था, ३.सिंह, जिन्होंने सिंह की गुफा में वर्षायोग किया था और सिंहसंघ की स्थापना की थी, ४. देव (द्वितीय), जिन्होंने देवदत्ता नाम की वेश्या के घर में वर्षायोग स्थापित किया था और देवसंघ बनाया था।
प्रो० हार्नले ने 'ए' और 'बी' पट्टावलियों के मूलपाठ का नमूना दिखाने के लिए जिस पहली प्रविष्टि को अपने आलेख में उद्धृत किया है, वह पूर्व में प्रदर्शित की जा चुकी है। उसमें उल्लिखित 'संवत् ४ चैत्र सुदि १४' (द्वितीय भद्रबाहु
१६. 'सः' के स्थान में 'सह' का प्रयोग, जो अशुद्ध है। १७. The Indian Antiquary, october 1891, vol. XX, p.346.
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