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२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
६. एकांगधर
अर्हद्बली - २८, पुष्पदन्त - ३०,
माघनन्दी - २१, धरसेन - १९,
भूतबलि - २०
अ०८ / प्र० २
११८ वर्ष
महायोग ६८३ वर्ष १४
आचार्यों के समक्ष दी गयी संख्या वर्षसूचक है । वह सूचित करती है कि उक्त आचार्य उतने वर्ष तक आचार्यपद पर आसीन रहे ।
इस प्राकृत पट्टावली के अनुसार द्वितीय भद्रबाहु वीरनिर्वाण से (६२+१००+१८३+ १२३+६ (सुभद्र)+१८ ( यशोभद्र ) = ४९२ वर्ष व्यतीत होने पर अर्थात् ४९३ वें वर्ष में पट्ट (आचार्यपद पर आसीन हुए 1
=
'ए' पट्टावली के कर्त्ता ने सरस्वतीगच्छ ( नन्दिसंघ) की पट्टावली का प्रारंभ द्वितीय भद्रबाहु से किया है । किन्तु उनका पट्टारोहण - वर्ष वीर नि० सं० ४९३ के स्थान में ४९२ रखा है। यह उनके निम्नलिखित कथन से ज्ञात होता है
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'तत्र प्रथमं वीरात् वर्ष ४९२ सुभद्राचार्यात् वर्ष २४ विक्रमजन्मान्त वर्ष २२ राज्यान्त वर्ष ४ भद्रबाहु जातः ॥ गाथा ॥
सत्तरि चदुसदजुत्तो तिण काला विक्कमो हवइ जम्मो ।
अठ वरस वाललीला सोडस वासेहि भम्मिए देस ॥ १८ ॥
पणरस वासे जज्जं कुणंति मिच्छोवदेससंजुत्तो । चालीस वरस जिणवरधम्मं पालीय सुरपयं लहियं ॥ १९ ॥१५ अनुवाद - वीर निर्वाण से ४९२ वें वर्ष में, सुभद्राचार्य के पश्चात् २४वें वर्ष में, विक्रम के जन्म के पश्चात् २२ वें वर्ष में तथा विक्रम के राज्यारोहण के अनन्तर ४थे वर्ष में द्वितीय भद्रबाहु पट्टारूढ़ हुए थे। इस आशय की गाथाएँ भी हैं
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" वीर निर्वाण से ४७० वर्ष व्यतीत होने पर विक्रम का जन्म हुआ था । आठ वर्ष तक बालक्रीडाएँ कीं । सोलह वर्ष तक देशभ्रमण किया । पन्द्रह वर्ष तक यज्ञ करते हुए मिथ्योपदेश का अनुसरण किया । पश्चात् चालीस वर्ष तक जिनधर्म का पालन कर स्वर्ग प्राप्त किया । "
१४. मूलपाठ इसी अध्याय के अन्त में 'विस्तृत सन्दर्भ' में देखिए । १५. The Indian Antiquary, october, 1891, vol. XX, p.347.
उक्त कथन के अनुसार हर प्रकार से वीरनिर्वाण के पश्चात् ४९२ वें वर्ष में ही द्वितीय भद्रबाहु का पट्टारूढ़ होना सिद्ध है । यथा
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