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अ०८/ प्र० २ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / २५ एक मास तक बतलाया गया है। विरह शब्द प्रथम २४ प्रविष्टियों में उपलब्ध होता है, पच्चीसवीं प्रविष्टि से इसके समानार्थी अन्तर शब्द का प्रयोग हुआ है।"
प्रो० हार्नले द्वारा ग्रहण किया गया यह अर्थ समीचीन नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त उद्धरण में तीन विरहदिनों को मिलाकर ही सर्वायुवर्ष (सम्पूर्ण आयु के वर्ष) ७६ मास और ११ दिन बतलाये गये हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विरह के तीन दिन भी आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) की सम्पूर्ण आयु में शामिल थे। प्रो० हार्नले ने स्वयं उनके सम्पूर्ण जीवनकाल को बतलाते हुए लिखा है-'The total period of his life was 76 years and 11 months. ( The Indian Antiquary, Vol. XX, p. 344). इससे सिद्ध है कि उक्त पट्टावली में पट्टधर के पट्ट को त्यागने और उसकी मृत्यु होने के बीच के समय को विरह कहा गया है।
विशेष-प्रविष्टि के आदि में लिखित १ संख्या प्रविष्टि के क्रमांक की सूचक है। तालिका के अंतिम खाने (कॉलम) में कोष्ठस्थ टिप्पणियाँ प्रो० हार्नले की हैं, शेष समस्त टिप्पणियाँ पट्टावली के पाठ का अनुवाद हैं। 'ए' पट्टावली के कर्ता ने नन्दिसंघ या सरस्वतीगच्छ के आदि-पुरुष द्वितीय-भद्रबाहु की गुरु-शिष्य-परम्परा दर्शाने के लिए प्रस्तावना के रूप में नन्दिसंघ की कही जानेवाली प्राकृत पट्टावली उद्धृत की है। उसका तालिका के रूप में हिन्दी रूपान्तर इस प्रकार है
नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली वीरनिर्वाण के पश्चात् आचार्यों का पट्टकाल १. केवली गौतम-१२, सुधर्म-१२, जम्बूस्वामी-३८ = ६२ वर्ष २. श्रुतकेवली विष्णु-१४, नन्दिमित्र-१६, अपराजित-२२,
गोवर्धन-१९, भद्रबाहु-२९ = १०० वर्ष ३. दशपूर्वधर विशाख-१०, प्रोष्ठिल-१९, क्षत्रिय-१७, जयसेन-२१,
नागसेन-१८, सिद्धार्थ-१७, धृतिषण-१८, विजय-१३,
बुद्धिलिंग-२०, देव-१४, धर्मसेन-१६ = १८३ वर्ष ४. एकादशांगधर नक्षत्र-१८, जयपाल-२०, पाण्डव-३९, ध्रुवसेन-१४, कंस-३२
१२३ वर्ष ५. दश,नव,अष्ट-अंगधर सुभद्र-६, यशोभद्र-१८, भद्रबाहु-२३, लोहाचार्य-५०
= ९७ वर्ष
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