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________________ २४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०२ या पट्टस्थवर्ष (पट्ट पर रहने का काल) तथा सर्ववर्ष या सर्वायुवर्ष (सम्पूर्ण जीवनकाल) का भी वर्णन है।१२ 'ए' पट्टावली की प्रस्तावना में नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली के सभी श्लोकों एवं गाथाओं को उद्धृत करते हुए उनका राजपूतानी बोली में स्पष्टीकरण किया गया है। अर्थात् यही उसकी प्रस्तावना है। इस प्रस्तावना का मूलपाठ प्रो० हार्नले ने अपने आलेख में ज्यों का त्यों उद्धृत किया है, जिसे उन्होंने 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' के वाल्यूम xX में निबद्ध अक्टूबर , 1891 के अंक (पृष्ठ 344 - 347) में प्रकाशित कराया था। किन्तु उन्होंने प्रस्तावना के बाद सरस्वती-गच्छ की 'ए' और 'बी' पट्टावलियों के मूल पाठ न देकर उनका सारांश एक तालिका के रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे उनका सरलतया अध्ययन एवं जिज्ञास्य तथ्य का अवलोकन आसानी से किया जा सके। प्रो० हार्नले ने पट्टावलियों के मूलपाठ का नमूना दिखाने के लिए निम्नलिखित पहली प्रविष्टि उद्धृत की है "१. संवत् ४ चैत्र सुदि १४ भद्रबाहु जी, गृहस्थवर्ष २४, दीक्षावर्ष ३०, पट्टस्थवर्ष २२, मास १०, दिन २७, विरहदिन ३, सर्वायुवर्ष ७६, मास ११, जाति ब्राह्मण।"१३ भावाथ-संवत् ४ में, चैत्र सुदि १४ के दिन, भद्रबाहु जी पट्टारूढ़ हुए। २४ वर्ष तक वे घर में रहे, ३० वर्ष तक सामान्य साधु , तथा २२ वर्ष, १० माह और २७ दिन तक पट्टधर रहे। विरह दिन (पट्ट को त्यागने और मृत्यु होने के बीच के दिन) ३ थे। उनके जीवन का सम्पूर्ण काल ७६ वर्ष और ११ माह था। वे ब्राह्मण जाति के थे। प्रो० हानले ने विरहदिन के विषय में लिखा है-"As to the exact meaning of the term virah (see the quotation above), I am uncertain. I have taken it to mean the time which intervened between the death of one pontiff and the enthronisation of his successor, this time varies from a few days to upwards of one month. It occurs in the first 24 entries; from the 25th entry onwards the synonymous term antara is used." (The Indian Antiquary, vol. XX, p.344). ___ अनुवाद-"विरह शब्द (देखिए , उपर्युक्त उद्धरण) के वास्तविक अर्थ के विषय में मुझे संशय है। मैंने इसे वर्तमान पट्टधर की मृत्यु और उत्तराधिकारी के पट्टासीन होने के बीच के समय का वाचक माना है। यह समय कुछ दिनों से लेकर १२. वही / पृ. 343. १३. वही / पृ. 344. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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