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अ०८ / प्र० २ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / २३ रची गयी थी। 'ए' पट्टावली दो जगह दोषपूर्ण है। उसमें क्रमांक ६६ से ७८ तक तथा ९२ से १०४ तक के पट्टधरों के नाम विद्यमान नहीं हैं। प्रथम रिक्ति (क्र. ६६-७८) हार्नले द्वारा तैयार की गई सूची (तालिका) में 'बी' पट्टावली से भरी गयी है, किन्तु दूसरी रिक्ति को इस पट्टावली से भरना संभव नहीं हुआ, क्योंकि ये दोनों पट्टावलियाँ क्रमांक ८८ से भिन्न-भिन्न गुरुपरम्पराओं में विभाजित हो जाती हैं।
'बी' पट्टावली में केवल पट्टावली है, प्रस्तावना नहीं। किन्तु यह परिपूर्ण है। यह भी संवत् ४ (ईसापूर्व ५३) में पट्टारूढ़ हुए द्वितीय भद्रबाहु से शुरू होती है
और क्र. १०२ के पट्टधर महेन्द्रकीर्ति पर समाप्त होती है, जो संवत् १९३८ (ई० सन् १८८१) में पदारूढ़ हुए थे और उस समय जयपुर में निवास कर रहे थे, जब श्री बेण्डल ने उस नगर की यात्रा की थी।११
__उक्त दो पट्टावलियाँ एक ही अन्वय की दो शाखाओं से सम्बद्ध हैं। वे शाखाएँ उस अन्वय के ८७ वें पट्टधर के पश्चात् उद्भूत हुई थीं। 'ए' पट्टावली की एक टिप्पणी के अनुसार यह विभाजन संवत् १५७२ (ई० सन् १५१५) में हुआ था। विभाजित होकर एक शाखा नागौर चली गई थी, दूसरी चित्तौड़ में ही रही आयी। चित्तौड़ ८७ वें पट्टधर का पट्टस्थान था। वे दोनों शाखाओं के मूल पट्टधर थे। 'ए' पट्टावली के अनुसार ८७ वें पट्टधर जिनचन्द्र थे, जिन्हें प्रभाचन्द्र का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ था। किन्तु 'बी' पट्टावली के अनुसार ८७ वें पट्टधर प्रभाचन्द्र थे, उनके ही समय में अन्वय विभाजित हुआ था। जिनचन्द्र उनके शिष्य थे। ८७ वें पट्टधर के बाद दोनों शाखाओं के अलग-अलग पट्टधर हो गये। इसलिए दोनों की पृथक्-पृथक् पट्टावलियाँ प्राप्त होती हैं। 'ए' पट्टावली नागौर शाखा की प्रतीत होती है और 'बी' पट्टावली चित्तौड़ शाखा की।११
दोनों पट्टावलियों में तिथियों का पूर्ण विवरण दिया गया है। 'बी' पट्टावली में प्रत्येक पट्टधर के पट्टारूढ़ होने की तिथि वर्णित है। 'ए' पट्टावली और भी विस्तृत है। इसमें न केवल पट्टारूढ़ होने की तिथि दी गई है, अपितु प्रत्येक के गृहवर्ष या गृहस्थवर्ष (घर में रहने का काल), दीक्षावर्ष (मुनिपद पर रहने का काल), पट्टवर्ष
. Two Pattavalis of the Sarasvati Gachchha of the Digambara Jains, The Indian
Antiquary, Vol.XX , october 1891, p.341. १०. It also commences with Bhadrabahu II in Samvat 4 (B.C. 53). The Indian
Antiquary, October 1891, Vol. XX, p.341. ११. The Indian Antiquary, october 1891, Vol. XX, p.342.
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