________________
२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० २
आचार्य हस्तीमल जी ने नागौरपट्ट में छब्बीस पट्टधरों का उल्लेख किया है। उनमें से प्रथम चार ही इण्डियन - ऐण्टिक्वेरी पट्टावली में मिलते हैं। उक्त अतिरिक्त नाम 'दि इण्डियन - ऐण्टिक्वेरी' Vol. XXI की C, D एवं E पट्टावलियों में भी नहीं हैं। प्रो० विद्याधर जोहरापुराकर ने जैनमन्दिरों में प्राप्त पट्टावलियों, जिनप्रतिमालेखों, अणुव्रतरत्नप्रदीप, वसुनन्दिश्रावकाचार, पाण्डवपुराण आदि ग्रन्थों की प्रस्तावनाओं तथा रविव्रतकथा आदि के वर्णनों से बलात्कारगण - नागौर - शाखा के पट्टधरों की कालक्रमानुसार नामावली तैयार की है, जिसमें रत्नकीर्ति से लेकर कनककीर्ति पर्यन्त २६ पट्टधरों एवं तत्कालीन पट्टधर श्री देवेन्द्रकीर्ति के नाम हैं । जोहरापुरकर जी ने इनका विवरण सन् १९५८ में प्रकाशित अपने ग्रन्थ भट्टारकसम्प्रदाय (पृ. ११४ - १२५ ) में दिया है। डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री ने इस ग्रन्थ से ही उक्त शेष २२ पट्टधरों के नाम ग्रहण किये हैं । अतः वे आचार्य हस्तीमल जी द्वारा उद्धृत पट्टावली में में भी दृष्टिगोचर होते हैं । इसलिए ये नाम भी प्रामाणिक हैं। इनमें से २३ वें पट्टधर हेमकीर्ति विक्रम सं० १९९० ( ई० सन् १८५३) में नागौरपट्ट पर आरूढ़ हुए थे। इनके बाद आरूढ़ होनेवाले तीन पट्टधरों में से अन्तिम कनककीर्ति के पट्टकाल की समाप्ति वि० सं० १९५० ( ई० सन् १८९३) में घटित होती है । इण्डि० - ऐण्टि० - पट्टावली में अन्तिम पट्टधर चित्तौड़पट्ट के महेन्द्रकीर्ति - द्वितीय बतलाये गये हैं। उनका पट्टारोहणकाल वि० सं० १८८१ ( ई० सन् १८२४) वर्णित है ।
३
इण्डियन - ऐण्टिक्वेरी-पट्टावली की आधारभूत पट्टावलियाँ
ई० सन् १८८५ में राजपूताना की यात्रा के समय श्री सेसिल बेण्डल ( Mr. Cecil Bendall) को जयपुर के पण्डित श्री चिमनलाल जी ने सरस्वतीगच्छ की दो पट्टावलियाँ प्रदान की थीं। श्री बेण्डल ने वे प्रो० ( डॉ० ) ए० एफ० रूडाल्फ हार्नले (Rudolf Hoernle) को सौंप दीं। हार्नले ने उन पट्टावलियों को क्रमशः 'ए' और 'बी' अक्षरों से चिह्नित किया । 'ए' पट्टावली में पट्टावली के साथ प्रस्तावना भी दी गयी है। प्रस्तावना में भगवान् महावीर से लेकर द्वितीय भद्रबाहु और उनके चार शिष्यों तक का विवरण है, जिनमें प्रथम हैं नन्दिसंघ के संस्थापक माघनन्दी | विवरण प्राकृत गाथाओं में है, जो किसी पुराने स्रोत से उद्धृत की गई हैं और राजपूतानी बोली में उनका खुलासा किया गया है। प्रस्तावना के अनन्तर नन्दिसंघ या सरस्वतीगच्छ की पट्टावली अर्थात् उत्तराधिकारी गुरुओं की नामावली वर्णित है । यह द्वितीय भद्रबाहु से आरंभ होती है और १०८ वें पट्टाधीश भुवनकीर्ति पर समाप्त होती है, जो संवत् १८४० ( ई० सन् १७८३) में पट्टारूढ़ हुए थे तथा उस समय भी आरूढ़ थे, जब यह पट्टावली
८. Prof. Hoernle : The Indian Antiqary, Vol. XX, p.341.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org