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________________ ७५८./ जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० १२ / प्र०३ श्वेताम्बरपरम्परा में उमास्वाति वाचकवंश के बतलाये गये हैं। इस आधार पर श्वेताम्बरपक्ष की ओर से यह भ्रम फैलाने का प्रयत्न किया गया कि गुणधर श्वेताम्बर थे। (क.पा./भा.१ / प्रस्ता./ पृ.६४-६५)। __ वीरसेन स्वामी ने धवला की टीका में वाचक का अर्थ पूर्वविद् किया है।५ इससे प्रतीत होता है कि गुणधर पूर्वविदों की परम्परा में से थे।६ इस प्रमाण के आधार पर माननीय पं० कैलाश चन्द्र जी शास्त्री उपर्युक्त भ्रम का निवारण करते हुए लिखते हैं-"वाचकवंश का सम्बन्ध भले ही श्वेताम्बरपरम्परा से रहा हो, किन्तु वाचकपद का सम्बन्ध किसी एक परम्परा से नहीं था। यदि ऐसा होता तो जयधवलाकार गुणधर को वाचक और अपने एक गुरु आर्यनन्दी को महावाचक पद से अलंकृत न करते। अतः मात्र वाचक कहे जाने से गुणधराचार्य को श्वेताम्बरपरम्परा का विद्वान् नहीं कहा जा सकता।" (क.पा./ भा.१ / प्रस्ता./पृ.६५)। १५ मोहनीय के ५२ नाम एकान्त-अचेलमार्गी-मूलसंघ की विरासत यापनीयपक्ष कसायपाहुड (भाग २) के 'व्यञ्जन-अर्थाधिकार' में क्रोध, मान, माया और लोभ के ५२ पर्यायवाचियों का उल्लेख है। यथा कोहो य कोव रोसो य अक्खम संजलण कलह वड्डी य। झंझा दोस विवादो दस कोहेयट्ठिया होति॥ ८६॥ माण मद दप्प थंभो उक्कास पगास तध समुक्कस्सो। अत्तुक्करिसो परिभव उस्सिद दसलक्खणो माणो॥ ८७॥ माया य सादिजोगो णियदी वि य वंचणा अणुज्जुगदा। गहणं मणुण्णमग्गण कक्क कुहक गृहणच्छण्णो॥ ८८॥ कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज दोसो य। णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य॥ ८९॥ सासद पत्थण लालस अविरदि तण्हा य विज्जजिब्भा य। लोभस्स णामधेज्जा वीसं एगट्ठिया भणिदा॥ ९०॥ १५. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास / भा.१ / पृ.२३ । १६. वही/भा.१ / पृ.२४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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