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अ० १२ / प्र० ३
कसायपाहुड / ७५७
मान्य विद्वान् के अपने ही इस वक्तव्य से उनका प्रथम वक्तव्य खण्डित हो जाता है और सिद्ध हो जाता है कि कसायपाहुड के कर्त्ता और उसके चूर्णिसूत्रकार तथा जयधवलाकार के बीच विषयविशेष पर मतभेद रहते हुए भी सम्प्रदायभेद नहीं था। अतः मान्य विद्वान् ने इस मतभेद से जो यह निष्कर्ष निकाला है कि मूलग्रन्थकार उत्तरभारत की उस अविभक्त निर्ग्रन्थ परम्परा के प्रतिनिधि हैं, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों की पूर्वज थी, तथा चूर्णिकार यापनीय और टीकाकार दिगम्बर हैं, वह मिथ्या सिद्ध हो जाता है ।
यापनीयपक्षी मान्य विद्वान् ने अपने प्रथम वक्तव्य में आचार्य गुणधर के स्थान में अपने ही मन से आर्य गुणन्धर शब्द का प्रयोग कर इतिहास को प्रदूषित करने का प्रयास किया है, जबकि उन्होंने स्वयं एक श्वेताम्बरपट्टावली में किसी गुणन्धर नाम के आचार्य के उल्लेख की चर्चा करते हुए पट्टावली को अविश्वसनीय और पर्याप्त परवर्ती कहकर उनके कसायपाहुड के कर्त्ता होने की संभावना को निरस्त कर दिया था। पता नहीं मान्य विद्वान् ने यहाँ क्यों उन्हें पुनः गुणधर के स्थान में स्थापित कर दिया ?
एक बात और है, धवला और जयधवला में षट्खण्डागम के उपदेश से कषायप्राभृत के उपदेश को भिन्न बतलाया गया है । १४ इस कारण भी यह भ्रम पैदा करने का प्रयास किया गया है कि ये दोनों भिन्न सम्प्रदाय के ग्रन्थ हैं।
इस भ्रम के निवारणार्थ माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं- " एक ही आम्नाय में होनेवाले आचार्यों में बहुधा मतभेद पाया जाता है और इस मतभेद पर से मात्र इतना ही निष्कर्ष निकाला जाता है कि उन आचार्यों की गुरुपरम्पराएँ भिन्न थीं। जिसको गुरुपरम्परा से जो उपदेश प्राप्त हुआ, उसने उसी को अपनाया । कर्मशास्त्रविषयक इन मतभेदों की चर्चा दोनों ही सम्प्रदायों में बहुतायत से पायी जाती है । अत: भिन्न उपदेश कहे जाने से भी यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि षट्खण्डागम से कषायप्राभृत भिन्न सम्प्रदाय का ग्रन्थ है। " ( क. पा./ भा. १ / प्रस्ता/ पृ.६६)
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'वाचक' पद का सम्बन्ध किसी परम्परा से नहीं
पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने एक अन्य तथ्य की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया है, वह यह कि जयधवलाकार ने आचार्य गुणधर को वाचक कहा है। और
१४. देखिए, कसायपाहुड / भा. १ / प्रस्तावना / पृ.६४ ।
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