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७५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१२ / प्र०३
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आचार्य-मतभेद परम्पराभेद का प्रमाण नहीं यापनीयपक्ष
उक्त विद्वान लिखते हैं-"कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि आर्यगुणन्धर, आर्यमंक्षु और आर्यनागहस्ती ने कसायपाहुड का जिस रूप में प्रतिपादन किया था, उससे अनेक स्थानों पर चूर्णिकार यतिवृषभ और जयधवलाटीकाकार मतभेद रखते थे। उदाहरणार्थ, ग्रन्थ के अर्थाधिकारों का मूलग्रन्थकार का वर्गीकरण चूर्णिसूत्र के कर्ता यतिवृषभ एवं जयधवलाकार के वर्गीकरण से भिन्न है। इससे यह फलित होता है कि मूलग्रन्थकार, चूर्णिकार और टीकाकार की परम्पराएँ एक नहीं है। जहाँ मूल ग्रन्थकार श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्वज उत्तरभारत की अविभक्त निर्ग्रन्थधारा के प्रतिनिधि हैं, वहाँ चूर्णिकार यापनीय और टीकाकार दिगम्बर हैं। चूर्णिकार को यापनीय मानने का कारण यह है कि यापनीय ही अविभक्त उत्तरभारतीय आगमिक साहित्य के उत्तराधिकारी रहे हैं।" (जै.ध.या.स./ पृ.८८)। दिगम्बरपक्ष
इस विषय में मैं और कुछ न कहकर उन्हीं मान्य विद्वान् के एक अन्य वक्तव्य की ओर ध्यान आकृष्ट करता हूँ। एक स्थान पर वे लिखते हैं
__ "डॉ० कुसुम पटोरिया ने श्वेताम्बर अथवा दिगम्बर-परम्परा की प्रचलित मान्यताओं से मतभेद रखनेवाले सभी ग्रन्थों को यापनीयपरम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया है। --- किन्तु मेरी दृष्टि में मात्र यही आधार उचित नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बर
और अचेलक, दोनों ही परम्पराओं के अवान्तर संघों, गणों या गच्छों में भी, न केवल आचार के सामान्य प्रश्नों को लेकर, अपितु ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा, कर्मसिद्धान्त और सृष्टिमीमांसा की सूक्ष्म विवेचनाओं के सम्बन्ध में अनेक अवान्तर मतभेद देखे जाते हैं। मात्र यही नहीं, एक ही ग्रन्थ में दो भिन्न-भिन्न मान्यताओं के निर्देश भी प्राप्त होते हैं। अतः मात्र इसी आधार पर कि उस ग्रन्थ की मान्यताएँ प्रचलित श्वेताम्बर
और दिगम्बर-परम्परा से भिन्न हैं, उसे यापनीय नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में भी अनेक अवान्तर मतभेद रहे हैं। उदाहरण के रूप में सिद्धसेन और जिनभद्र केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमभाव या यौगपद्य को लेकर मतभेद रखते हैं। षट्खण्डागम की धवलाटीका में भी दिगम्बरपरम्परा के ही अनेक अवान्तर मतभेदों की विस्तृत चर्चा है। कसायपाहुडसुत्त और उसकी चूर्णि में भी ऐसे मतभेद देखे जाते हैं। अतः प्रचलित मान्यताओं से मतभेदमात्र किसी ग्रन्थ के यापनीय होने का आधार नहीं है।" (जै.ध.या.स./ पृ.८१)।
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