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________________ ७५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१२ / प्र०३ तथा यह सिद्ध हो चुका है कि श्वेताम्बरपरम्परा में अर्धमागधी में रचित कसायपाहुड का कभी भी अस्तित्व नहीं रहा और शौरसेनी में रचित कसायपाहुड श्वेताम्बरपरम्परा का हो नहीं सकता। तथा यापनीयसाहित्य और यापनीय-शिलालेखों में न तो कसायपाहुड का उल्लेख है, न उसके कर्ता आचार्य गुणधर का, न कसायपाहुड को आचार्यपरम्परा से प्राप्त करनेवाले आर्यमंक्षु और नागहस्ती का, न ही इन दोनों के पादमूल में बैठकर उसका श्रवण करनेवाले आचार्य यतिवृषभ का। अतः उसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करनेवाला भी कोई प्रमाण नहीं है। इसके विपरीत उसे दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध करनेवाले अनेक प्रमाण हैं। तब उसमें स्त्रीमुक्ति के विधान की कल्पना करना श्वेताम्बर-आगमों में स्त्रीमुक्ति के निषेध की कल्पना करने के समान है। __इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में वेदत्रय एवं वेदवैषम्य का भी प्रतिपादन है, जो यापनीय-मत-विरोधी सिद्धान्त हैं। इससे भी सिद्ध है कि वह यापनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं है। अतः उसमें स्त्रीमुक्ति के विधान की कल्पना करना मनमानी कल्पना है। इस प्रकार कसायपाहुड में स्त्रीमुक्ति का विधान सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया अपगतवेदत्व का हेतु स्त्रीमुक्ति के विधान का साधक न होने से हेतु नहीं है, अपितु हेत्वाभास है। उपर्युक्त यापनीयपक्षी विद्वान् का यह कथन भी समीचीन नहीं है कि "निश्चय ही लिङ्ग तो द्रव्यचिह्न होता है, बन्धन और मुक्ति का मूल आधार तो भाव ही होता है और वेद (कामवासना) का सम्बन्ध भाव से है।" (जै.ध.या.स./पृ.८७)। षट्खण्डागम के अध्याय में सोदाहरण स्पष्ट किया गया है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के आगमों में लिंग और वेद पर्यायवाचियों के रूप में प्रयुक्त हुए हैं, यथा द्रव्यलिंग और भावलिंग, द्रव्यवेद और भाववेद। __ मान्य विद्वान् ने टिप्पणी की है कि "यह कहना कितना अयुक्तिसंगत और अध्यात्मवाद के विपरीत होगा कि जीव स्त्रीलिंग (स्त्रीशरीर) से युक्त होने पर तो पाँचवे गुणस्थान से आगे आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता, किन्तु स्त्रीवेद (स्त्री सम्बन्धी कामवासना) के होते हुए वह दसवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास कर सकता है। यदि ‘कसायपाहुड' के कर्ता यह स्वीकार करते हैं कि स्त्रीवेद की उपस्थिति में दसवें गुणस्थान तक'३ आध्यात्मिक विकास संभव है, तो वे स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं कर सकते।" (जै.ध.या.स./पृ.८८)। १३. कसायपाहुड तथा अन्य दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार नौवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त ही वेद का अस्तित्व रहता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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