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________________ अ०१२/प्र०३ कसायपाहुड / ७५३ भाग १/ प्रस्तावना / पृ.९-१४)। यह भी कसायपाहुड के दिगम्बरग्रन्थ होने का एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। इन समस्त युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि श्वेताम्बरपरम्परा में कसायपाहुड कभी उपलब्ध नहीं रहा। अतः यापनीयपक्षपोषक उक्त विद्वान् ने जो यह कहा है कि श्वेताम्बर-परम्परा को श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा से उत्तराधिकार में कसायपाहुड प्राप्त हुआ था, वह अप्रामाणिक है। इससे यापनीयों को भी उस परम्परा से कसायपाहुड के उत्तराधिकार में प्राप्त होने का कथन मिथ्या सिद्ध हो जाता है। यह इस बात का सबूत है कि उस उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा में कसायपाहुड का अस्तित्व ही नहीं था। और यह तो पहले ही सिद्ध किया जा चुका है कि वह परम्परा ही कपोलकल्पित है। अतः जो परम्परा थी ही नहीं, उससे किसी भी वस्तु के उत्तराधिकार में प्राप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। १२ स्त्रीमुक्ति-समर्थन का मत असत्य यापनीयपक्ष यापनीयपक्ष-समर्थक उक्त विद्वान् का कथन है कि कसायपाहुड के अनुसार स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का उदय रहते हुए भी जीव नौवें गुणस्थान तक पहुँच सकता है और उसके बाद अपगतवेद (वेदरहित) होकर क्रमशः चौदहवाँ गुणस्थान भी प्राप्त कर सकता है। इस तरह कसायपाहुड में स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है। अतः वह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा का है। (जै.ध.या.स./पृ.८७-८८)। दिगम्बरपक्ष उन यापनीयपक्षधर विद्वान् के ही उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि अपगतवेदत्व गुणस्थानसिद्धान्त का अंग है। और यह भी उन्होंने ही स्वीकार किया है कि गुणस्थानसिद्धान्त श्वेताम्बरपरम्परा का सिद्धान्त नहीं है। यापनीय भी श्वेताम्बर-आगमों के अनुस" थे तथा गुणस्थानसिद्धान्त श्वेताम्बर-मान्यताओं की तरह यापनीय-मान्यताओं का भी विरोधी है, अतः वह यापनीयमत का भी सिद्धान्त नहीं है। वह केवल दिगम्बरमत का सिद्धान्त है और उसके अनुसार भावमानुषी और भावनपुंसक मनुष्य ही नौवें गुणस्थान तक पहुँच सकते हैं और उसके अवेदभाग में अपगतवेद होते हैं, द्रव्यमानुषी और द्रव्यनपुंसकपुरुष नहीं। अतः अपगतवेदी को चौदह गुणस्थानों की प्राप्ति के उल्लेख से स्त्रीमुक्ति सिद्ध नहीं होती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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