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________________ ७५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० १२ / प्र०३ इन पाँच ग्रन्थों का संक्षेप में संग्रह किया है।११ यतः श्वेताम्बरपरम्परा में अर्धमागधी या शौरसेनी प्राकृत में रचित कसायपाहुड का कभी अस्तित्व नहीं रहा, इसलिए यही सिद्ध होता है कि चन्द्रर्षि महत्तर ने साम्प्रदायिक भेदभाव न करते हुए कसायपाहुड की उत्कृष्टता और प्राचीनता को देखकर दिगम्बरग्रन्थ होते हुए भी उसकी गाथाओं का पंचसंग्रह में संग्रह किया है। मलयगिरि (१२वीं शती ई०) ने अपनी टीका में उक्त पाँच ग्रन्थों में से कषायप्राभृत को छोड़कर शेष चार का प्रमाणरूप से उल्लेख किया है। यह दर्शाता है कि उनके समय में साम्प्रदायिक भेदभाव तीव्र हो गया था, इसलिए उन्होंने दिगम्बरीय ग्रन्थ होने के कारण कसायपाहुड का प्रमाणरूप से उल्लेख नहीं किया, अन्यथा शौरसेनी में निबद्ध कसायपाहुड तो आज भी उपलब्ध है। डॉक्टर सागरमल जी की मान्यतानुसार शौरसेनीकसायपाहुड अर्धमागधी-कसायपाहुड का यतिवृषभकृत रूपान्तरणमात्र है, मूलगाथाएँ तो वही थीं, अतः यदि मान्य विद्वान् के अनुसार मलयगिरि को श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा से उत्तराधिकार में प्राप्त अर्धमागधी-कसायपाहुड उपलब्ध नहीं था, तो वे दिगम्बरपरम्परा की प्रति का उपयोग कर सकते थे, जैसा चन्द्रर्षि महत्तर ने किया। किन्तु ऐसा नहीं किया गया, इससे सिद्ध है कि श्वेताम्बरपरम्परा में कसायपाहुड का अस्तित्व ही नहीं था। दिगम्बरपरम्परा में था, किन्तु साम्प्रदायिक भेदभाव के कारण उसे प्रमाणरूप से उद्धृत करने के लिए मलयगिरि तैयार नहीं हुए। इस तरह सित्तरीचूर्णि में कसायपाहुड का उल्लेख तथा पञ्चसंग्रह में उसकी गाथाएँ संगृहीत होने से भी यह सिद्ध नहीं होता कि श्वेताम्बरपरम्परा में कसायपाहुड का अस्तित्व था। उक्त ग्रंथों में दिगम्बरपरम्परा के ही कसायपाहुड का उल्लेख है तथा उसी की गाथाएँ उद्धृत हैं। कसायपाहुड पर श्वेताम्बरीय टीका नहीं कसायपाहुड पर चूर्णिसहित सभी टीकाएँ दिगम्बराचार्यों द्वारा ही लिखी गई हैं, श्वेताम्बराचार्यों ने कोई भी टीका नहीं लिखी। (देखिए, जयधवलासहित कसायपाहुड/ ११. क- जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ.८६ तथा कसायपाहुडसुत्त/प्रस्तावना-पं. हीरालाल जी शास्त्री/पृ.६०। ख-चन्द्रर्षि महत्तर का समय विक्रम की ९वीं-१०वीं शताब्दी (डॉ. जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास/पृ.२९१)। १२. क-जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ.८६।। ख-मलयगिरि का समय ईसवी सन् की १२वीं शती (डॉ. जगदीश चन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास / पृ. १०५)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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