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________________ अ०१२/प्र०३ कसायपाहुड / ७५१ "इस पर चूर्णिसूत्र इस प्रकार है "दुविहो पडिवादो-भवक्खयेण च उवसामणाक्खयेण च। भवक्खयेण पदिदस्स सव्वाणि करणाणि एगसमएण उग्घाडिदाणि। पढमसमए चेव जाणि उदीरिजंति कम्माणि ताणि उदयावलियं पवेसदाणि। जाणि ण उदीरिजंति ताणि वि ओकड्डियूण आवलियबाहिरे गोवुच्छाए सेढीए णिक्खित्ताणि। जो उवसामणाक्खयेण पडिवडदि तस्स विहासा।" (क.पा./भाग १४/पृ.४५-४७)। - "इसका मिलान कर्मप्रकृति के उपशमनाकरण की ५७वीं गाथा की इस चूर्णि से कीजिये ___"इयाणि पडिवातो सो दुविहो-भवक्खएण उवसमद्धक्खएण य। जो भवक्खएण पडिवडइ तस्स सव्वाणि करणाणि एगसमतेण उग्घाडियाणि भवंति। पढमसमते जाणि उदीरिजंति कम्माणि ताणि उदयावलिगं पवेसयाणि। जाणि ण उदीरिजंति ताणि उक्कड्डिऊण उदयावलिबाहिरतो उवरि गोपुच्छागितीते सेढीते रतेति। जो उवसमद्धक्खएणं परिपडति तस्स विहासा।" । "यह ध्यान में रखना चाहिये कि प्रतिपात के इन भेदों की चर्चा कर्मप्रकृति की उस गाथा में तो है ही नहीं, जिसकी यह चूर्णि है, किन्तु अन्यत्र भी हमारी दृष्टि से नहीं गुजर सकी। दूसरे, तस्स विभासा करके लिखने की शैली चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ की ही है। यह हम पहले उनकी व्याख्यानशैली का परिचय कराते हुए लिख आये हैं। कर्मप्रकृति की कम से कम उपशमनाकरण की चूर्णि में तो तस्स विभासा लिख करके गाथा के व्याख्यान करने का क्रम इसके सिवाय अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं हो सका। कर्मप्रकृति के चूर्णिकार तो गाथा का पद देकर ही उसका व्याख्यान करते हैं। जैसे इसी गाथा के व्याख्यान में-"उवसंता य अकरण त्ति-उवसंतातो मोहपगडीतो करणा य ण भवंति।" उनका सर्वत्र यही क्रम है। तीसरे, एक दूसरे की रचना को देखे बिना इतना साम्य होना संभव प्रतीत नहीं होता। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मप्रकृति के चूर्णिकार ने कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों को देखा था।" (क.पा./भा.१/प्रस्ता./पृ.२२२४)। उक्त दोनों विद्वानों के विश्लेषणों पर विचार करने से दो ही विकल्प सामने आते हैं कि या तो उपर्युक्त सभी चूर्णियों के कर्ता आचार्य यतिवृषभ हैं अथवा वे सभी कसायपाहुड-चूर्णिसूत्रों के आधार पर लिखी गई हैं। इसीलिए सित्तरीचूर्णि में कसायपाहुड का उल्लेख हुआ है। चन्द्रर्षि महत्तर (विक्रम की ९वीं-१०वीं शती) ने पञ्चसंग्रह में शतक (सतक), सप्ततिका (सत्तरी), कषायप्राभृत (कसायपाहुड), सत्कर्म और कर्मप्रकृति (कम्मपयडी) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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