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अ०१२ / प्र०३
कसायपाहुड / ७४५ में कसायपाहुड की दोनों प्राकृतों में निबद्ध प्रतियाँ उपलब्ध थीं, तब यह कैसे सम्भव है कि शौरसेनी प्रतियाँ दिगम्बरभण्डारों में सुरक्षित रही आयीं और अर्धमागधी प्रतियाँ श्वेताम्बरभण्डारों से लुप्त हो गयीं? यह युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। इसलिए श्वेताम्बरपरम्परा में अर्धमागधी कसायपाहुड का उपलब्ध न होना यही सिद्ध करता है कि न तो इस परम्परा में उसकी रचना हुई थी, न ही उसका कपोलकल्पित श्वेताम्बरयापनीय-मातृपरम्परा से उत्तराधिकार में प्राप्त होना संभव था।
मुनि कल्याणविजय जी ने कसायपाहुड के श्वेताम्बरग्रन्थ होने का मत प्रकट किया है। किन्तु उन्होंने यह कल्पना नहीं की, कि वह अर्धमागधी में भी था और उसका शौरसेनीकरण यतिवृषभ ने किया था। उन्होंने कसायपाहुड को शौरसेनी में ही मूलतः निबद्ध माना है। अतः उपर्युक्त ग्रन्थ के लेखक ने मुनि जी के मत से असहमति प्रकट की है। वे लिखते हैं-"श्वेताम्बरपरम्परा में कोई भी शौरसेनी प्राकृत की रचना उपलब्ध नहीं है। अतः कसायपाहुड के वर्तमानस्वरूप को श्वेताम्बरपरम्परा की रचना तो नहीं कहा जा सकता, जैसा कि कल्याण-विजय जी ने माना है।" (जै.ध.या. स/पृ.८५)। इससे यह संभावना निरस्त हो जाती है कि वर्तमान शौरसेनी-कसायपाहुड ही श्वेताम्बरसम्प्रदाय को अपनी श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा से प्राप्त हुआ था।
मुनि कल्याणविजय जी ने नन्दिसूत्र की स्थविरावली में आर्यमंक्षु और नागहस्ती के नाम उपलब्ध होने से कसायपाहुड को श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ माना है। इसका खंडन करते हुए पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने कहा है कि यदि ऐसा होता, तो श्वेताम्बरपरम्परा में कसायपाहुड अनुपलब्ध न होता और दिगम्बरपरम्परा में उसके दर्शन न होते। उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया है कि आर्यमंक्षु और नागहस्ती से दिगम्बरों को ही कसायपाहुड उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। वे लिखते हैं___"इन दोनों आचार्यों का नाम नन्दिसूत्र की पट्टावली में अवश्य आता है और उसमें नागहस्ती को वाचकवंश का प्रस्थापक और कर्मप्रकृति का प्रधान विद्वान् भी कहा गया है। किन्तु इन दोनों आचार्यों के मन्तव्य का एक भी उल्लेख श्वेताम्बरपरम्परा के आगमिक या कर्मविषयक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता, जब कि धवला
और जयधवला में उनके मतों का उल्लेख बहुतायत से पाया जाता है और ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः जयधवलाकार के सन्मुख इन दोनों आचार्यों की कोई कृति रही हो। इन्हीं दोनों आचार्यों के पास कसायपाहुड का अध्ययन करके आचार्य यतिवृषभ ने अपने चूर्णिसूत्रों की रचना की थी, और बाद को उन्हीं के आधार पर अनेक आचार्यों ने कसायपाहुड-वृत्तियाँ आदि लिखी थीं। सारांश यह है कि दिगम्बरपरम्परा को कसायपाहुड और उसका ज्ञान आर्यमंक्षु और नागहस्ती से ही प्राप्त हुआ था। ये
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