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________________ ७४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० १२ / प्र० ३ दोनों आचार्य श्वेताम्बर परम्परा के ही होते, तो कसायपाहुड या तो दिगम्बरपरम्परा को प्राप्त ही नहीं होता, यदि होता भी, तो श्वेताम्बरपरम्परा उससे एकदम अछूती न रह जाती। " शायद कहा जाये, जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, कि कषायप्राभृत के 'संक्रम अनुयोगद्वार' की कुछ गाथाएँ कर्मप्रकृति में पायी जाती हैं, अतः श्वेताम्बरपरम्परा को उससे एकदम अछूता तो नहीं कहा जा सकता। इसके सम्बन्ध में हमारा मन्तव्य है कि प्रथम तो संक्रम- अनुयोगद्वार - सम्बन्धी गाथाओं के गुणधर - रचित होने में पूर्वाचार्यों में मतभेद था। कुछ आचार्यों का मत था कि उनके रचयिता आचार्य नागहस्ती थे। यद्यपि जयधवलाकार इस मत से सहमत नहीं हैं, फिर भी मात्र उतनी गाथाओं के कर्मप्रकृति में पाये जाने से यह नहीं कहा जा सकता कि आचार्य गुणधर का वारसा दिगम्बरपरम्परा की तरह श्वेताम्बरपरम्परा को भी प्राप्त था। दूसरे, हम यह पहले बतला आये हैं कि कषायप्राभृत की संक्रमप्रवृत्तिसम्बन्धी जो गाथाएँ कर्मप्रकृति में पायी जाती हैं, उनमें कषायप्राभृत की गाथाओं से कुछ भेद भी है और वह भेद सैद्धान्तिक मतभेद को लिये हुए है। यदि कषायप्राभृत में उपलब्ध पाठ श्वेताम्बरपरम्परा को मान्य होता, तो कर्मप्रकृति में उसे हम ज्यों का त्यों पाते, कम से कम उसमें सैद्धान्तिक मतभेद न होता । " (क.पा./ भा. १ / प्रस्ता. / पृ. ६५) । निष्कर्ष यह कि श्वेताम्बरपरम्परा में अर्धमागधी और शौरसेनी दोनों भाषाओं के कसायपाहुड की अनुपलब्धि सिद्ध करती है कि जिसे उक्त मान्य विद्वान् ने श्वेताम्बरों और यापनीयों की मातृपरम्परा कहा है और दोनों को जिसकी विरासत का उत्तराधिकारी बतलाया है, उससे श्वेताम्बरों को कसायपाहुड उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं हुआ। तब एक महान् प्रश्न खड़ा हो जाता है कि जिस मातृपरम्परा के श्वेताम्बर और यापनीय दोनों उत्तराधिकारी थे, उससे उत्तराधिकार में कसायपाहुड यापनीयों को तो प्राप्त हो गया, किन्तु श्वेताम्बरों को प्राप्त नहीं हुआ, इसका क्या कारण था ? कारण स्पष्ट है कि ऐसी कोई परम्परा थी ही नहीं । यदि होती, तो जिस तरह यापनीयों को उससे उत्तराधिकार में कसायपाहुड की प्राप्ति मानी गयी है, उसी प्रकार श्वेताम्बरों को भी वह अवश्य ही प्राप्त हुआ होता। अपनी मातृपरम्परा की इतनी बहुमूल्य विरासत को दूसरा भाई कैसे छोड़ देता ? श्वेताम्बरों के पास इतनी बहुमूल्य विरासत नहीं है, इससे यही सिद्ध होता है कि जिस मातृपरम्परा की यह विरासत मानी गई है, उसका अस्तित्व ही नहीं था । वह सर्वथा मनःकल्पित है। इससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि यापनीयों को भी यह विरासत प्राप्त नहीं हुई थी। क्योंकि जो परम्परा थी ही नहीं, उससे किसी को भी कोई विरासत कैसे प्राप्त हो सकती थी? अतः सिद्ध है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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