SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 797
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१२ / प्र०३ कसायपाहुड / ७४३ दिगम्बरमुनियों के भी नाम में 'यति' शब्द ___ तथा यापनीयपक्षधर पूर्वोक्त ग्रन्थलेखक का यह कथन समीचीन नहीं है कि यापनीय-मुनियों में अपने नाम के साथ 'यति' शब्द लगाने की प्रवृत्ति रही है, क्योंकि सर्वप्रथम तो यतिग्रामाग्रणी भदन्त शाकटायन इस उदाहरण में 'यति' शब्द नाम के साथ नहीं, अपितु उपाधि के साथ जुड़ा है, अतः यह नाम के साथ 'यति' शब्द जुड़े होने का उदाहरण नहीं है। दूसरे, सभी यापनीय मुनियों या आचार्यों के साथ 'यति' उपाधि नहीं मिलती, जैसे ऊपर उद्धृत किये गये शिलालेखीय नामों के साथ। तीसरे, दिगम्बरमुनियों के साथ भी 'यति' उपाधि का प्रयोग मिलता है, जैसे न्यायदीपिका के कर्ता अभिनव-धर्मभूषणयति के साथ। इस प्रकार सभी यापनीय मुनियों के नाम के साथ 'यति' शब्द उपलब्ध न होने तथा दिगम्बरमुनियों के भी नाम के साथ इसका प्रयोग होने से यह यापनीय मुनियों का असाधारणधर्म या लक्षण नहीं है। अतः नाम के साथ 'यति' शब्द का प्रयोग मुनियों के यापनीय होने का हेतु नहीं है, अपितु अहेतु या हेत्वाभास है। इसलिए आचार्य यतिवृषभ के नाम में 'यति' शब्द होने से यह सिद्ध नहीं होता कि वे यापनीय थे। ८ . अर्धमागधी प्रति के अभाव में शौरसेनीकरण असंभव यापनीयपक्ष यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक का कथन है कि उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थश्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा में रचित अर्धमागधी-कसायपाहुड उत्तराधिकार में श्वेताम्बरों और यापनीयों दोनों को प्राप्त हुआ था। वह यापनीयपरम्परा में यतिवृषभ के द्वारा शौरसेनी में रूपान्तरित किया गया। यही वर्तमान में उपलब्ध है। (जै.ध.या.स./ पृ.८५, ८६, ८९)। दिगम्बरपक्ष यदि वह ग्रन्थ दोनों परम्पराओं को उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ होता, तो जैसे यतिवृषभ को शौरसेनीकरण तथा चूर्णिसूत्र लिखने के लिए उपलब्ध था, वैसे ही श्वेताम्बरपरम्परा में भी वह अर्धमागधी में उपलब्ध होना चाहिए था। किन्तु वह श्वेताम्बरपरम्परा में उपलब्ध नहीं है, न ही उसके उपलब्ध होने का कोई इतिहास श्वेताम्बरसाहित्य में विद्यमान है, इससे सिद्ध है कि उत्तराधिकार में प्राप्त होने की बात मनगढंत है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy