SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 795
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१२/प्र०३ कसायपाहुड / ७४१ यतिवृषभ का नाम यापनीय-आचार्यों की नामावली में नहीं यापनीयपक्ष कसायपाहुड शौरसेनी प्राकृत में है, अर्धमागधी में नहीं। यदि अर्धमागधी में होता, तो उक्त यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक उसे आसानी से श्वेताम्बरग्रन्थ घोषित कर देते। किन्तु शौरसेनी में होने से उसे यापनीयपरम्परा या उसकी कपोलकल्पित मातृपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उन्हें बहुत बड़ा प्रपञ्च रचना पड़ा। उसके निम्नलिखित अंग है १. 'गुणधर' शब्द को गलत बतलाकर 'गणधर' को सही कहना। २. उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा के अस्तित्व की कल्पना करना। ३. आर्यमंक्षु और नामहस्ती को श्वेताम्बरपरम्परा से सम्बद्ध न बतलाकर उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा से सम्बद्ध बतलाना और यह घोषित करना कि कसायपाहुड उनके द्वारा रचा गया है। ४. इस कपोलकल्पना को जन्म देना कि उक्त परम्परा से श्वेताम्बर और यापनीय दोनों को अर्धमागधी में रचित कसायपाहुड उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। ५. यह कल्पना करना कि यतिवृषभ द्वारा उसका शौरसेनीकरण किया गया। ६. यतिवृषभ को यापनीय घोषित करना। ७. यतिवृषभ के नाम के साथ जुड़े 'यति' शब्द को यापनीयों की उपाधि मानकर उन्हें यापनीय सिद्ध करना। यदि यतिवृषभ को यापनीय सिद्ध न किया जाता, तो कसायपाहुड के यापनीयों द्वारा शौरसेनीकरण का मिथ्यावाद युक्तिसंगत प्रतीत न होता। और तब उसके मूलतः अर्धमागधी में रचे जाने का मिथ्यावाद उपपन्न न होता। ऐसा होने पर उसके श्वेताम्बरयापनीय-मातृपरम्परा का ग्रन्थ होने और उससे श्वेताम्बरों और यापनीयों को उत्तराधिकार में प्राप्त होने के मिथ्यावाद की संगति न बैठती। इसलिए उक्त ग्रन्थ के लेखक के लिए अपना प्रयोजन सिद्ध करने हेतु यतिवृषभ को यापनीय सिद्ध करना अत्यन्त आवश्यक था। इसलिए उन्होंने यतिवृषभ को यापनीय घोषित कर दिया और उसके समर्थन में यह हेतु प्रस्तुत किया कि उनके नाम के साथ 'यति' शब्द जुड़ा हुआ है, जो यापनीय आचार्यों की उपाधि थी। देखिए उक्त ग्रन्थलेखक के निम्नलिखित शब्द Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy