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________________ ७४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१२ / प्र०३ ___पंडित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने 'जैन साहित्य का इतिहास' (भाग १/पृः१७१८) में भी इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने लिखा है "श्वेताम्बरपरम्परा में आर्यमंगु और नागहस्ती का विवरण एक-एक गाथा के द्वारा केवल नन्दिसूत्र की स्थविरावली में ही पाया जाता है। इनके किसी मत का या किसी कृति का कोई उल्लेख श्वेताम्बरसाहित्य में नहीं मिलता, जब कि जयधवला के देखने से यह प्रकट होता है कि टीकाकार वीरसेन स्वामी के सामने कोई ऐसी रचना अवश्य थी, जिसमें इन दोनों आचार्यों के मतों का स्पष्ट निर्देश था, क्योंकि यतिवृषभ ने अपने चूर्णिसूत्रों में पवाइजमाण उपदेश का निर्देश अवश्य किया है, किन्तु किसका उपदेश पवाइजमाण और किसका उपदेश अपवाइजमाण है, यह निर्देश नहीं किया। इसका स्पष्ट विवेचन किया है टीकाकार ने, अतः उनके सामने कोई उक्त प्रकार की रचना अवश्य होनी चाहिए।" ___इस तरह श्वेताम्बरसाहित्य में आर्यमंक्षु और नागहस्ती की न तो किसी कृति का उल्लेख है, न किसी मत का, जब कि दिगम्बरसाहित्य में है। यह तथ्य इस बात का सबूत है कि श्वेताम्बर-स्थविरावली में उल्लिखित आर्यमंक्षु और नागहस्ती कसायपाहुड की गाथाओं से परिचित नहीं थे, कसायपाहुड से उनका दूर का भी सम्बन्ध नहीं था। अतः अन्यथानुपपत्ति से यही सिद्ध होता है कि जयधवलाकार ने जिन आर्यमंक्षु और नागहस्ती का उल्लेख किया है और यह कहा है कि उनके पादमूल में बैठकर यतिवृषभ ने गुणधरकथित गाथाओं के अर्थ का श्रवण किया था, वे श्वेताम्बरस्थविरावलियों में उल्लिखित आर्यमंक्षु और नागहस्ती से सर्वथा भिन्न थे। वे दिगम्बरपरम्परा में उत्पन्न हुए थे। अतः उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा के आर्यमंक्षु और नागहस्ती से यतिवृषभ ने गुणधरकथित गाथाओं का अर्थ श्रवण किया था, यह मान्यता, जो कसायपाहुड को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए हेतुरूप में प्रस्तुत की गयी है, असत्य है। रूपरेखा' शीर्षक के नीचे लिखा है-"भूमिका के मुख्य तीन भाग हैं : ग्रन्थ, ग्रन्थकार और विषयपरिचय। इनमें से आदि के दो स्तम्भ पं. कैलाशचन्द्र जी ने लिखे हैं और अन्तिम स्तम्भ पं. महेन्द्रकुमार जी ने लिखा है।" यहाँ भूमिका से तात्पर्य 'प्रस्तावना' से है, क्योंकि 'प्रस्तावना' शीर्षक के अन्तर्गत ही, १. ग्रन्थपरिचय (पृष्ठ ५-३५), २. ग्रन्थकारपरिचय (पृ. ३६-७३) तथा ३. विषयपरिचय (पृष्ठ ७३-१०६) निबद्ध हैं। प्रस्तुत उद्धरण पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिखित प्रस्तावना-भाग (पृष्ठ ६५ एवं ४१) से गृहीत हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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