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________________ अ० १२ / प्र०३ कसायपाहुड / ७३९ इसी प्रकार दोनों आचार्यों के मतों का उल्लेख करते हुए जयधवलाकार ने लिखा "एत्थ दुवे उवएसा अस्थि त्ति, के वि भणंति। तं कधं? महावाचयाणमजमंखुखवणाणमुवदेसेण लोगे पूरिदे आउगसमं णामागोदवेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्मं ठवेदि। महावाचयाणं णागहत्थिखवणाणमुवएसेण लोगे पूरिदे णामागोदवेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तपमाणं होदि। होतं पि आउगादो संखेजगुणमेत्तं ठवेदि त्ति। णवरि एसो वक्खाणसंपदाओ चुण्णिसुत्तविरुद्धो। चुण्णिसुत्ते मुत्तकंठमेव संखेजगुणमाउआदो त्ति णिहिट्ठित्तादो। तदो पवाइजंतोवएसो एसो चेव पहाणभावेणावलंबेयव्वो।" (प्रे.का./ पृ.७५८१)। "अर्थात् इस विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं। वे उपदेश इस प्रकार हैं: महावाचक आर्यमंक्षु क्षपण के उपदेश से लोकपूरण करने पर नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति को आयु के समान करता है। और महावाचक नागहस्ती क्षपण के उपदेश से लोकपूरण करने पर नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण करता है। अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण करने पर भी आयु से संख्यातगुणीमात्र करता है। इन दोनों उपदेशों में से पहला उपदेश चूर्णिसूत्र के विरुद्ध है, क्योंकि चूर्णिसूत्र में स्पष्ट ही संखेजगुणमाउआदो ऐसा कहा है। अतः दूसरा जो पवाइज्जंत उपदेश है, उसी का मुख्यता से अवलम्बन करना चाहिये। (क.पा./ भाग १६/अनु.३४४/ पृ.१५८)। "यद्यपि सम्यक्त्व-अनुयोगद्वार में दोनों के ही उपदेशों को पवाइजंत कहा है। यथा-"पवाइजंदेण पुण उवएसेण सव्वाइरियसम्मदेण अजमखुणागहत्थिमहावाचयमुहकमलविणिग्गयेण सम्मत्तस्स अट्ठवस्साणि।" (प्रे. पृ.६२६१)। "किन्तु इसका कारण यह मालूम होता है कि यहाँ दोनों आचार्यों में मतभेद नहीं है। अर्थात् आर्यमंक्षु का भी वही मत है जो नागहस्ती का है। यदि आर्यमंक्षु का मत नागहस्ती के प्रतिकूल होता, तो यहाँ भी उसे अपवाइज्जंत ही कहा जाता है। अतः यह स्पष्ट है कि जेठे होने पर भी आर्यमंक्षु की अपेक्षा प्रायः नागहस्ती का मत सर्वाचार्यसम्मत माना जाता था. कम से कम जयधवलाकार को तो यही इष्ट था। इन दोनों आचार्यों को भी जयधवलाकार ने महावाचक लिखा है और इन दोनों आचार्यों का भी उल्लेख धवला, जयधवला और श्रुतावतार के सिवाय उपलब्ध दिगम्बरसाहित्य में अन्यत्र नहीं पाया जाता है।" (क.पा./ भा.१ / प्रस्ता./पृ.४१)। ४. जयधवलासहित कसायपाहुड, भाग १ के 'सम्पादकीय वक्तव्य' में पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ने पृष्ठ (१४ ब) पर (जयधवलासहित कसायपाहुड) के 'कार्यविभाग की स्थूल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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