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७३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१२ / प्र०३ नागहस्ती को गुणधर या अन्य किसी आचार्य से कसायपाहुड की गाथाएँ प्राप्त हुई थीं अथवा उन्होंने स्वयं रची थीं, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो वे गाथाएँ आचार्यपरम्परा से श्वेताम्बरसम्प्रदाय में धरोहर के रूप में अवश्य सरक्षित रहतीं. जैसे दिगम्बरपरम्परा में सुरक्षित हैं, और श्वेताम्बरसाहित्य में भी यह उल्लेख किया गया होता कि आर्यमंक्षु
और नागहस्ती को कसायपाहुड की गाथाएँ गुणधर या किसी अन्य आचार्य से साक्षात् या आचार्यपरम्परा द्वारा प्राप्त हुई थीं अथवा उन्होंने स्वयं उनकी रचना की थी। इतना ही नहीं आर्यमंक्षु और नागहस्ती के किसी मत या किसी अन्य कृति का भी उल्लेख श्वेताम्बरसाहित्य में नहीं मिलता। इस तथ्य का उद्घाटन करते हुए पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री जयधवलासहित-कसायपाहुड की प्रस्तावना में लिखते हैं
___ "इन दोनों आचार्यों का नाम नन्दिसूत्र की पट्टावली में अवश्य आता है और उसमें नागहस्ती को वाचकवंश का प्रस्थापक और कर्मप्रकृति का प्रधान विद्वान् भी कहा है। किन्तु इन दोनों आचार्यों के मन्तव्य का एक भी उल्लेख श्वेताम्बरपरम्परा के आगमिक या कर्मविषयक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता, जबकि धवला और जयधवला में उनके मतों का उल्लेख बहुतायत से पाया जाता है और ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः जयधवलाकार के सन्मुख इन दोनों आचार्यों की कोई कृति रही हो।" (क.पा./ भा.१ / प्रस्ता./पृ. ६५)।
"इन दोनों आचार्यों के मतों का उल्लेख जयधवला में अनेक जगह आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जयधवलाकार के सामने इन दोनों आचार्यों की कोई कृति मौजूद थी या उन्हें गुरुपरम्परा से इन दोनों आचार्यों के मत प्राप्त हुए थे, क्योंकि ऐसा हुए बिना निश्चित रीति से अमुक-अमुक विषयों पर दोनों के जुदे-जुदे मतों का इस प्रकार उल्लेख करना संभव प्रतीत नहीं होता। इन दोनों में आर्यमंक्षु जेठे मालूम होते हैं, क्योंकि सब जगह उन्हीं का पहले उल्लेख किया गया है। किन्तु जेठे होने पर भी आर्यमंक्षु के उपदेश को अपवाइजमाण और नागहस्ती के उपदेश को पवाइज्जमाण कहा है। जो उपदेश सर्वाचार्यसम्मत होता है और चिरकाल से अविच्छिन्न सम्प्रदाय के क्रम से चला आता हुआ शिष्यपरम्परा के द्वारा लाया जाता है, वह पवाइजमाण कहा जाता है। अर्थात् आर्यमंक्षु का उपदेश सर्वाचार्यसम्मत और अविच्छिन्न सम्प्रदायके क्रम से आया हुआ नहीं था, किन्तु नागहस्ती आचार्य का उपदेश सर्वाचार्यसम्मत और अविच्छिन्न सम्प्रदाय के क्रम से चला आया हुआ था। पश्चिमस्कन्ध में एक जगह
३."सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमव्वोच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराए पवाइज्जदे
पण्णविज्जदे सो पवाइज्जंतोवएसो त्ति भण्णदे। अथवा अज्जमंखुभयवंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम। णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जंतओ त्ति घेतव्वो।" जयधवला/ क. पा./ भा.१२/ अनु. १५३ / पृ.७१-७२।
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