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________________ अ०१२/प्र०३ कसायपाहुड / ७३५ से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ" यहाँ भी गुणधर के स्थान में गणधर मानना होगा, तब सम्पूर्ण कथन असंगत हो जायेगा, क्योंकि अंगों और पूर्वो का एकदेश आचार्यपरम्परा से गणधर को प्राप्त नहीं हुआ था, अपितु गणधर से आचार्यपरम्परा को प्राप्त हुआ था। गणधर को तो साक्षात् भगवान् महावीर से प्राप्त हुआ था और अंगों और पूर्वो का एकदेश नहीं, अपितु वे समग्रतः प्राप्त हुए थे। निम्नलिखित वाक्यों में भी वीरसेन स्वामी ने गुणधर के मुखकमल से निकली हुईं कहा है क-"गुणहराइरियमुहकमलविणिग्गयसव्वगाहाणं समासो तेत्तीसाहियविसदमेत्तो होदि २३३।" (ज.ध/क.पा./भा.१ / गा.११-१२ / अनु.१४६/ पृ.१६६)। ख-"गुणहरमुहविणिग्गयत्तादो।" (ज.ध/क.पा./भा.१/गा.१५ /अनु.३३२/ पृ.३३१)। न केवल गुणधर के अपितु 'आर्यमंक्षु और नागहस्ती के मुखकमल से निकले हुए' ऐसा प्रयोग भी वीरसेन स्वामी ने किया है। यथा ग-"अजमखु-णागहत्थि-महावाचय-मुहकमल-विणिग्गएण सम्मत्तस्स---।" (ज.ध./क.पा./ भाग १३ / गा.११४/ अनु.७४/ पृ.५४)। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि उक्त यापनीयपक्षी विद्वान् का यह कथन कि गणधर के स्थान में भूल से गुणधर मान लिया गया है, स्वयं उनकी ही भूल है। यदि वे जयधवला के केवल प्रथमभाग का ही ध्यान से अवलोकन करते, तो उनसे उनके अभिप्राय और प्रयत्न की गंभीरता को सन्देहास्पद बनानेवाली ऐसी खेदजनक भूल न हुई होती। सार यह कि दिगम्बर-परम्परा में आचार्य गुणधर के अस्तित्व को असत्य सिद्ध करने के लिए बतलाया गया उपर्युक्त हेतु स्वयं असत्य है। असत्य हेतु गुणधर के अस्तित्व को असत्य सिद्ध नहीं कर सकता। तत्पश्चात् वे यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक श्वेताम्बरपरम्परा से किसी गुणन्धर को ढूँढ़ कर ले आते हैं और उनके कसायपाहुडकर्ता होने की संभावना पर विचार करने लगते हैं। (जै.ध.या.स./प्र.८५)। किन्तु कालसंगति न बैठने के कारण उन्हें कसायपाहुडका कर्ता घोषित करने का विचार त्याग देते हैं। और अन्त में यह नहीं बतला पाते कि उनके अनुसार कसायपाहुड का कर्ता कौन है? श्वेताम्बर आर्यमंगु-नागहस्ती का कसायपाहुड से सम्बन्ध असंभव यापनीयपक्ष यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक ने उपर्युक्त असत्य हेतु के द्वारा गुणधर के अस्तित्व को झुठलाकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि कसायपाहुड का सम्बन्ध केवल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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