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७३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१२ / प्र०३ आर्यमंगु और नागहस्ती से है। अर्थात् प्रकारान्तर से उन्हें ही उसका कर्ता सिद्ध करना चाहा है। और चूँकि उन दोनों के नाम श्वेताम्बर-स्थविरावलियों में उपलब्ध हैं और उपलब्ध कसायपाहुड अर्धमागधी प्राकृत में नहीं है, इसलिए मान्य ग्रन्थलेखक ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि ये दोनों आचार्य न श्वेताम्बर थे, न यापनीय, अपितु दोनों ही उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-मातृपरम्परा से सम्बद्ध थे। कसायपाहुड इसी परम्परा में रचा गया था। और इस परम्परा के विभाजित होने पर उत्तराधिकार में श्वेताम्बर और यापनीय दोनों सम्प्रदायों को प्राप्त हुआ था। उस समय वह अर्धमागधी में था, किन्तु यापनीय परम्परा में वह यतिवृषभ के द्वारा शौरसेनी में रूपान्तरित कर लिया गया। वर्तमान में उपलब्ध कसायपाहुड वही है। मान्य ग्रन्थलेखक अपने इन विचारों को प्रकट करते हुए लिखते हैं
"वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ आर्यमंक्षु और नागहस्ती की उस अविभक्त परम्परा में निर्मित हुआ है, जिसका उत्तराधिकार समानरूप से यापनीयों को भी प्राप्त हुआ था। सम्भावना यही है कि आर्यमंक्षु और नागहस्ती से. अध्ययन करके यतिवृषभ ने ही इसे शौरसेनी प्राकृत का वर्तमानस्वरूप प्रदान कर चूर्णिसूत्र की रचना की हो।" (जै.ध.या.स./पृ.८५)।
___ "इससे यही सिद्ध होता है कि कसायपाहुड उत्तरभारत की अविभक्त निर्ग्रन्थपरम्परा (सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा) का ग्रन्थ है, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों को समानरूप से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था।" (जै.ध.या.स./ पृ.८९)।
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि डॉ० सागरमल जी ने आर्यमंगु को आर्यमंक्षु शब्द से भी अभिहित किया है। वे लिखते हैं-"ज्ञातव्य है कि नन्दीसूत्र एवं माथुरीवाचना की स्थविरावली में आर्य मंक्षु (मंगु) आर्य नन्दिल और आर्य नागहस्ती (नागहत्थी) के उल्ले ख हैं---।" (जै.ध. या.स./पृ.८३)। दिगम्बरपक्ष
__ यह उक्त ग्रन्थलेखक के अपने मन की कल्पना है। यदि उपलब्ध कसायपाहुड अर्धमागधी में होता, तो वे इसे बड़ी सरलता से श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ घोषित कर देते। तब उन्हें न तो श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा के अस्तित्व की कल्पना करनी पड़ती, न आर्यमंक्षु और नागहस्ती को उस परम्परा से सम्बद्ध मानने की, न उस परम्परा में कसायपाहुड के रचे जाने की, न ही यतिवृषभ को यापनीय मानकर उनके द्वारा कसायपाहुड का शौरसेनीकरण किये जाने की। यह सारा प्रपञ्च उन्हें इसलिए रचना पड़ा कि कसायपाहुड शौरसेनी में है, अर्धमागधी में नहीं।
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