SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 788
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१२ / प्र०३ को श्रुतज्ञान का सागर और गुणधर को कसायप्राभृत का गाथाओं द्वारा व्याख्यान करनेवाला कहा है। इससे स्पष्ट है कि आगे जयधवला (क.पा./भा.१) की ७वीं मंगलगाथा में जो यह कहा गया है कि गुणधर के मुख से निकली हुई गाथाओं के अर्थ का अवधारण आर्यमंक्षु और नागहस्ती ने किया, वह गुणधर से ही सम्बन्धित है। यहाँ गणधर और गुणधर के ज्ञान में महान् अन्तर बतलाया गया है। गणधर को श्रुतज्ञान का सागर बतलाया गया है और गुणधर को केवल कषायप्राभृत का ज्ञाता। तथा गणधर को पहले नमस्कार किया गया है, गुणधर को बाद में। यदि गुणधर के स्थान में भी गणधर शब्द ही माना जाय तो गणधर को नमस्कार की पुनरावृत्ति का प्रसंग आयेगा, जबकि उसके पूर्व किसी को भी नमस्कार की पुनरावृत्ति नहीं की गई है। इससे सिद्ध है कि मान्य ग्रन्थलेखक ने जो गुणधर के स्थान में 'गणधर' होने की कल्पना की है, वह निराधार है। आचार्य वीरसेन ने वहाँ कसायपाहुड के कर्ता गुणधर को ही प्रणाम किया है। ऐसे प्रयोग उन्होंने और भी कई जगह किये हैं। यथा "तदो अंगपुव्वाणमेगदेसो चेव आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्तो। पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपवादपंचमपुव्व-दसमवत्थु-तदियकसायपाहुड-महण्णवपारएण गंथवोच्छेदभएण पवयणवच्छल-परवसीकयहियएण एवं पेजदोसपाहुडं सोलस-पद-सहस्सपमाणं होतं असीदि-सदमेत्त-गाहाहि उवसंघारिदं। पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाओ आइरियपरंपराए आगच्छमाणीओ अज्जमुंखणागहत्थीणं पत्ताओ। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसद-गाहाणं गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं।" (ज.ध./क.पा./भा.१ / गा.१/ अनु.६८/ पृ.७९-८०)। अनुवाद-उसके पश्चात् अंगों और पूर्वो का एकदेश ही आचार्यपरम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ। पुनः ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु-सम्बन्धी तीसरे कषायप्राभृतरूपी महासमुद्र के पार को प्राप्त श्री गुणधर भट्टारक ने, जिनका हृदय प्रवचन के वात्सल्य से भरा हुआ था, सोलह हजार पदप्रमाण इस पेज्जदोसपाहुड का, ग्रन्थ-विच्छेद के भय से, केवल एक सौ अस्सी गाथाओं के द्वारा उपसंहार किया। पुनः वे ही सूत्रगाथाएँ आचार्यपरम्परा से आती हुईं आर्यमंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुईं। पुनः उन दोनों आचार्यों के पादमूल में बैठकर गुणधर आचार्य के मुखकमल से निकली हुईं उन एक सौ अस्सी गाथाओं के अर्थ को भली प्रकार श्रवण करके प्रवचनवत्सल यतिवृषभ भट्टारक ने उन पर चूर्णिसूत्रों की रचना की।" यहाँ पुनः 'गुणधर आचार्य के मुखकमल से निकली हुईं' यह प्रयोग किया गया है। अब यदि यहाँ गुणधर के स्थान में गणधर माना जाय, तो प्रारंभिक वाक्य में जो यह कहा गया है कि "उसके पश्चात् अंगों और पूर्वी का एकदेश ही आचार्यपरम्परा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy