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________________ अ० १२ / प्र० २ कसायपाहुड / ७२७ समय वीर निर्वाण सं० ५६५ अथवा वि० सं० ९५ है । यह स्पष्ट है कि गुणधर अर्हद्बलि के पूर्ववर्ती हैं, पर कितने पूर्ववर्ती हैं, यह निर्णयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता। यदि गुणधर की परम्परा को ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्ष का समय मान लिया जाय, तो ‘छक्खंडागम'-प्रवचनकर्त्ता धरसेनाचार्य से 'कसायपाहुड' के प्रणेता गुणधराचार्य का समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य गुणधर का समय वि० पू० प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है । 44 'हमारा यह अनुमान केवल कल्पना पर आधृत नहीं है । अर्हद्बलि के समय तक गुणधर के इतने अनुयायी यति हो चुके थे कि उनके नाम पर उन्हें संघ की स्थापना करनी पड़ी। अत एव अर्हद्बलि को अन्य संघों के समान गुणधरसंघ को भी मान्यता देनी पड़ी। प्रसिद्धि प्राप्त करने और अनुयायी बनाने में कम से कम सौ वर्ष का समय तो लग ही सकता है। अतः गुणधर का समय धरसेन से कम से कम दो सौ वर्ष पूर्व अवश्य होना चाहिये । " इनके गुरु आदि के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है । गुणधर इस ग्रन्थ की रचना कर आचार्य नागहस्ति और आर्यमंक्षु को इसका व्याख्यान किया था। अत एव इनका समय उक्त आचार्यों से पूर्व है । छक्खंडागम के सूत्रों के अध्ययन से भी यह अवगत होता है कि 'पेज्जदोसपाहुड' का प्रभाव इसके सूत्रों पर है। भाषा की दृष्टि से छक्खंडागम की भाषा कसायपाहुड की भाषा की अपेक्षा अर्वाचीन है। अतः गुणधर का समय वि० पू० प्रथम शताब्दी मानना सर्वथा उचित है । जयधवलाकार लिखा है " पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाओ आइरियपरंपराएं आगच्छमाणीओ अज्जमंखुणागहत्थीणं पत्ताओ। पुणो तेसिं दोन्हं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं।''(ज.ध./क.पा./ भा. १ / गा.१ / अनु. ६८/पृ.७९-८०) । 44 ' अर्थात् गुणधराचार्य के द्वारा १८० गाथाओं में कसायपाहुड का उपसंहार कर दिये जाने पर वे ही सूत्रगाथाएँ आचार्यपरम्परा से आती हुईं आर्यमंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुईं। पश्चात् उन दोनों ही आचार्यों के पादमूल में बैठकर गुणधराचार्य मुखकमल से निकली हुईं उन १८० गाथाओं के अर्थ को भले प्रकार से श्रवण करके प्रवचनवात्सल्य से प्रेरित हो यतिवृषभ भट्टारक ने उन पर चूर्णिसूत्रों की रचना की । इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर ने महान् विषय को संक्षेप में प्रस्तुत कर सूत्रप्रणाली का प्रवर्तन किया । गुणधर दिगम्बरपरम्परा के सबसे पहले सूत्रकार हैं।" (ती.म.आ.प./खं.२/पृ.२९-३१) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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