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७२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० १२ / प्र०२ २.१. कसायपाहुड ईसापूर्व द्वितीय शती के उत्तरार्ध में रचित
यापनीयपक्षी उक्त ग्रन्थलेखक ने स्वकल्पित गुणस्थान-विकासवाद के आधार पर कसायपाहुड का रचनाकाल तीसरी-चौथी शती ई० परिकल्पित किया है। किन्तु पूर्व में गुणस्थानविकासवाद की कपोलकल्पितता सप्रमाण सिद्ध की जा चुकी है, अतः उसके आधार पर किया गया उक्त निर्णय भी मिथ्या है। डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री ज्योतिषाचार्य ने दिगम्बरजैन-साहित्य में उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर आचार्य गुणधर का काल विक्रमपूर्व प्रथम शताब्दी अर्थात् ईसापूर्व द्वितीय शती का उत्तरार्ध निर्धारित किया है, जो सब दृष्टियों से समीचीन प्रतीत होता है। वे लिखते हैं
"आचार्य गुणधर के समय के सम्बन्ध में विचार करने पर ज्ञात होता है कि इनका समय धरसेन के पूर्व है। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में लोहार्य तक की गुरुपरम्परा के पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्यों का उल्लेख किया गया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वो के एकदेशज्ञाता थे। इनके पश्चात् अर्हद्वलि का नाम आया है। अर्हद्वलि बड़े भारी संघनायक थे। इन्हें पूर्वदेश के पुण्ड्रवर्धनपुर का निवासी कहा गया है। इन्होंने पञ्चवर्षीय युगप्रतिक्रमण के समय बड़ा भारी एक यति-सम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन तक के यति सम्मिलित हुए। इन यतियों की भावनाओं से अर्हद्वलि ने ज्ञात किया कि अब पक्षपात का समय आ गया है। अत एव इन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पञ्चस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामों से भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये, जिससे परस्पर में धर्मवात्सल्यभाव वृद्धिंगत हो सके।
___ "संघ के उक्त नामों से यह स्पष्ट होता है कि गुणधरसंघ आचार्य गुणधर के नाम पर ही था। अतः गुणधर का समय अर्हदलि के समकालीन या उनसे भी पूर्व होना चाहिए। इन्द्रनन्दि को गुणधर और धरसेन का पूर्व या उत्तरवर्तित्व ज्ञात नहीं है। अत एव उन्होंने स्वयं अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए श्रुतावतार में लिखा है
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात्॥ १५१॥ "अर्थात् गुणधर और धरसेन की पूर्वापर गुरुपरम्परा हमें ज्ञात नहीं है, क्योंकि इसका वृत्तान्त न तो हमें किसी आगम में मिला और न किसी मुनि ने ही बतलाया।
"स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दि के समय तक आचार्य गुणधर और धरसेन का पूर्वापरवर्त्तित्व स्मृति के गर्भ में विलीन हो चुका था। पर इतना स्पष्ट है कि अर्हदलि द्वारा स्थापित संघों में गुणधरसंघ का नाम आया है। नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली में अर्हद्वलि का
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