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अ०१२/प्र०२
कसायपाहुड / ७२५ यापनीय परम्पराओं में मान्य नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट है कि इसका प्रतिपादक कसायपाहुड इन दोनों परम्पराओं या इनकी मातृपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। १.३. शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध
श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं का कोई भी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में नहीं रचा गया। श्वेताम्बरग्रन्थों की भाषा अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत है। तथा यापनीयपरम्परा का प्राकृतभाषा में निबद्ध कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। उसके जो स्त्रीनिर्वाणप्रकरण आदि तीन-चार ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सभी संस्कृत में हैं। कुछ विद्वानों ने शौरसेनी में रचित भगवती-आराधना और मूलाचार को, तथा 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने तिलोयपण्णत्ती आदि कुछ अन्य ग्रन्थों को भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ बतलाया है, किन्तु वे दिगम्बरग्रन्थ ही हैं, इसके प्रमाण उत्तर अध्यायों में द्रष्टव्य हैं। उक्त ग्रन्थ के लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है कि "श्वेताम्बर-परम्परा में कोई भी शौरसेनीप्राकृत की रचना उपलब्ध नहीं है। अतः कसायपाहुड के वर्तमान स्वरूप को श्वेताम्बर-परम्परा की रचना तो नहीं कहा जा सकता, जैसा कि कल्याणविजय जी ने माना है।" (जै.ध.या.स./पृ.८५)।
- तथापि उक्त ग्रन्थ के मान्य लेखक ने यह माना है कि कसायपाहुड मूलतः अर्धमागधी में था। उसके चूर्णिसूत्रकार यापनीय यतिवृषभ ने उसे शौरसेनी में रूपान्तरित कर दिया। किन्तु उन्होंने न तो इस बात का कोई प्रमाण प्रस्तुत किया है कि आचार्य यतिवृषभ यापनीय थे, न ही इस बात का कि उन्होंने कसायपाहुड का शौरसेनी में रूपान्तरण किया था। अतः ये दोनों बातें कपोलकल्पित हैं। इन्हीं यतिवृषभाचार्य ने तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ की रचना की है। उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध किया है, जो यापनीयमत की आधारभूत मान्यताएँ हैं। इसके प्रमाण तिलोयपण्णत्ती नामक सप्तदश अध्याय में दर्शनीय हैं। अतः इस प्रमाण से आचार्य यतिवृषभ दिगम्बराचार्य ही सिद्ध होते हैं। इसलिए उनके द्वारा किसी श्वेताम्बरीय अर्धमागधी ग्रन्थ का शौरसेनी में रूपान्तरित किये जाने का कोई प्रयोजन ही दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे सिद्ध है कि कसायपाहुड दिगम्बर-परम्परा का ही ग्रन्थ है।
बहिरंग प्रमाण निम्नलिखित बहिरंग प्रमाण भी सिद्ध करते हैं कि कसायपाहुड दिगम्बराचार्य द्वारा ही रचित है, अन्य किसी भी परम्परा के आचार्य द्वारा नहीं।
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