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७२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० १२ / प्र०२ तेरसय णवय सत्तय सत्तारस पणय एक्कवीसाए।
एगाधिगाए वीसाए संकमो छप्पि सम्मत्ते॥ ३३॥ अनुवाद-"इक्कीस-प्रकृतिक स्थान का संक्रम तेरह, नौ, सात, सत्तरह, पाँच और इक्कीस-प्रकृतिक छह प्रतिग्रहस्थानों में होता है। ये छहों प्रतिग्रहस्थान सम्यक्त्व से युक्त गुणस्थानों में होते हैं।"
एत्तो अवसेसा संजमम्हि उवसामगे च खवगे च।
वीसा य संकमदुगे छक्के पणगे च बोद्धव्वा॥ ३४॥ अनुवाद-"शेष संक्रम और प्रतिग्रहस्थान उपशमक और क्षपक संयत के ही होते हैं। बीस-प्रकृतिक स्थान का संक्रम छह और पाँच-प्रकृतिक दो प्रतिग्रहस्थानों में जानना चाहिए।"
चदुर दुगं तेवीसा मिच्छत्ते मिस्सगे य सम्पत्ते।
बावीस पणय छक्कं विरदे मिस्से अविरदे य॥ ४३॥ अनुवाद-मिथ्यात्व गुणस्थान में सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस और तेईस-प्रकृतिक चार संक्रमस्थान होते हैं। मिश्रगुणस्थान में पच्चीस और इक्कीस-प्रकृतिक दो संक्रमस्थान होते हैं। सम्यक्त्वयुक्त गुणस्थानों में तेईस संक्रमस्थान होते हैं। संयमयुक्त प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानों में बाईस संक्रमस्थान होते हैं। मिश्र अर्थात् संयतासंयत गुणस्थान में सत्ताईस, छब्बीस, तेईस, बाईस और इक्कीस-प्रकृतिक पाँच संक्रमस्थान होते हैं। अविरतगुणस्थान में सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस, बाईस और इक्कीस-प्रकृतिक छह संक्रमस्थान होते हैं।"
___ इसके अतिरिक्त बादरसाम्पराय ('चरिमो बादररागो'/ गा.२०९/ क.पा. / भा.१६), सूक्ष्मसाम्पराय ('सुहमम्हि सांपराए'/ गा.२१७ / क. पा./ भा.१६), छद्मस्थवीतराग आदि गुणस्थानों से सम्बन्धित विविध निरूपण किये गये हैं। मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि की प्रवृत्तियों और विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला गया है। अपगतवेदत्व गुणस्थानसिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण अंग है। उसका निरूपण 'अवगयवेद-णqसय' इत्यादि गाथा (४५/क.पा./ भा.८) में किया गया है।
चतुर्दशगुणस्थानों से सम्बन्धित यह सूक्ष्म एवं विस्तृत निरूपण दिगम्बरग्रन्थ का लक्षण है और श्वेताम्बर तथा यापनीय परम्पराओं के ग्रन्थों का प्रतिलक्षण, क्योंकि इससे यापनीयों और श्वेताम्बरों को मान्य गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं शुभाशुभोपयोगप्रवृत्त-स्त्रीपुरुषों की मुक्ति के सिद्धान्तों का विरोध होता है। षट्खण्डागम के अध्याय में इस तथ्य पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। गुणस्थानसिद्धान्त श्वेताम्बर और
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