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अ० १२ / प्र०२
कसायपाहुड / ७२३ इन गाथाओं से सूचित होता है कि कसायपाहुड में कर्मभूमि के प्रत्येक मनुष्य और संज्ञी तिर्यंच में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, इन तीनों वेद-नोकषायों की सत्ता स्वीकार की गई है। यह यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि वह प्रत्येक जीव में एक ही वेदसामान्य का अस्तित्व मानता है, वही स्त्री में स्त्रीवेद के रूप में, पुरुष में पुरुषवेद के रूप में तथा नपुंसक में नपुंसकवेद के रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार यापनीयमत में वेदकषाय एक ही प्रकार की मानी गई है। अतः उसके अनुसार कषायें पच्चीस न होकर तेईस ही हैं। इसका स्पष्टीकरण षट्खण्डागम के अध्याय में विस्तार से किया जा चुका है। कसायपाहुड में इस यापनीयमतविरोधी वेदत्रय के सिद्धान्त की उपलब्धि सिद्ध करती है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं है।
वेदत्रय का अस्तित्व वेदवैषम्य की आधारशिला है। दिगम्बरीय और श्वेताम्बरीय शास्त्र इसके प्रमाण हैं। अतः कसायपाहुड में वेदत्रय की स्वीकृति से वेदवैषम्य भी स्वीकार किया गया है। किन्तु यापनीयमत में वेदवैषम्य के लिए स्थान नहीं है, क्योंकि वहाँ प्रत्येक जीव में एक ही प्रकार के भाववेद का अस्तित्व माना गया है। इस कारण भी कसायपाहुड यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादक है। १.२. गुणस्थान सिद्धान्त की उपलब्धि
. कसायपाहुड में गुणस्थानों का भी निर्देश मिलता है। संक्रम अधिकार (क.पा./भा.८)की निम्न-लिखित गाथाओं में प्रकृतिसंक्रमस्थान के स्वामित्व का वर्णन गुणस्थानानुसार किया गया है
सत्तारसेगवीसासु संकमो णियम पंचवीसाए।
णियमा चदुसु गदीसु य णियमा दिट्ठीगए तिविहे॥ ३०॥ अनुवाद-"सत्तरह और इक्कीस-प्रकृतिक दो प्रतिग्रहस्थानों में पच्चीस-प्रकृतिक स्थान का नियम से संक्रमण होता है। यह पच्चीस-प्रकृतिक संक्रमस्थान नियम से चारों ही गतियों में होता है। तथा दृष्टिगत अर्थात् 'दृष्टि' पद जिनके अन्त में है, उन मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, तीनों गुणस्थानों में वह पच्चीसप्रकृतिक संक्रमस्थान नियम से पाया जाता है।"
चोहसग दसग सत्तग अट्ठारसगे च णियम वावीसा।
णियमा मणुसगईए विरदे मिस्से अविरदे य॥ ३२॥ अनुवाद-"बाईस-प्रकृतिक स्थान का संक्रम नियम से चौदह, दस, सात और अट्ठारह-प्रकृतिक चार प्रतिग्रहस्थानों में होता है। यह नियम से मनुष्यगति में ही होता है। तथा वह संयत, संयतासंयत (मिश्र) और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में होता है।"
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