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________________ अ० १२ / प्र० १ कसायपाहुड / ७२१ यह निरन्तर मतपरिवर्तन इस बात का प्रमाण है कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक महोदय के पास कसायपाहुड को यापनीयपरम्परा, श्वेताम्बरपरम्परा या दोनों की मन:कल्पित मातृपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए कोई भी प्रमाण नहीं है। पहले वे उसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं, तो ग्रन्थ के कर्त्ता आदि (गुणधर, आर्यमंक्षु और नागहस्ती ) के स्थितिकाल और यापनीय-सम्प्रदाय के उत्पत्तिकाल में वैषम्य बाधक बन जाता है । फिर श्वेताम्बरयापनीयों की मातृपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उद्यत होते हैं, तो गुणस्थानविकास के कल्पित मत की दीवारें ढहने लगती हैं। यदि श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने की ओर झुकते हैं, तो कसायपाहुड की शौरसेनी भाषा अँगूठा दिखाने लगती है। अतः अन्त में हारकर अपनी कलम नीची कर देते हैं। यह विफलता इस बात की सूचक है कि यापनीयपक्षपोषक ग्रन्थलेखक डॉ० सागरमल जी के पास इस सत्य को झुठलाने के लिए कोई प्रमाण नहीं था कि कसायपाहुड दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ है। वे मनःकल्पित हेतुओं और छलवाद के द्वारा ऐसा करना चाहते थे, जिससे हर बार कोई न कोई यथार्थ बीच में आकर बाधक बन गया और वे अपने उद्देश्य की सिद्धि में विफल हो गये । अन्त में यही सत्य विजयी रहा कि कसायपाहुड दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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