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________________ अ०१२/प्र०१ कसायपाहुड / ७१९ कि आर्यमंक्षु और नागहस्ती से अध्ययन करके यतिवृषभ ने ही इसे (कसायपाहुड को) शौरसेनी प्राकृत का वर्तमान स्वरूप प्रदानकर चूर्णिसूत्र की रचना की हो।" (पृ.८५)। ___ अब ठीक इसके विपरीत दूसरे कथन पर दृष्टि डालें-"जहाँ तक यतिवृषभ और उनके कसायपाहुड-चूर्णिसूत्रों के रचनाकाल का प्रश्न है, जयधवला के अनुसार यतिवृषभ आर्यमंक्षु के शिष्य और आर्य नागहस्ती के अन्तेवासी थे और उन्होंने उन्हीं से कसायपाहुड का अध्ययन कर चूर्णिसूत्रों की रचना की थी, किन्तु इस कथन की विश्वसनीयता सन्देहास्पद है।" (पृ.१११)। "श्वेताम्बरपरम्परा की कम्मपयडीचूर्णि, सतकचूर्णि और सित्तरीचूर्णि से शैलीगत निकटता भी यही सूचित करती है कि कसायपाहुडचूर्णि का रचनाकाल भी लगभग छठी-सातवीं शती होगा और इसी आधार पर यतिवृषभ का काल भी यही मानना होगा।" (पृ.१११)। ७. इसी तरह पूर्व में वे निर्णय देते हैं कि कसायपाहुड आर्यमंक्षु और नागहस्ती की उत्तरभारतीय-अविभक्त-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का ग्रन्थ है। (पृ.८५)। किन्तु, बाद में वे अपना निर्णय बदल देते हैं और कहते हैं-"यदि हम कसायपाहुड में प्रस्तुत गुणस्थान की अवधारणा पर विचार करें तो ऐसा लगता है कि कसायपाहुड की रचना गुणस्थानसिद्धान्त की अवधारणा के निर्धारित होने के बाद हुई है। अर्धमागधी आगमसाहित्य में, यहाँ तक की प्रज्ञापना जैसे विकसित आगम और तत्त्वार्थसूत्र में भी गुणस्थान का सिद्धान्त सुव्यवस्थित रूप नहीं ले पाया था, जब कि कसायपाहुड गुणस्थानसिद्धान्त के सुव्यवस्थित रूप लेने के बाद ही रचा गया है। अतः यदि तत्त्वार्थ (तत्त्वार्थसूत्र) का रचनाकाल ईसा की दूसरी-तीसरी शती है, तो उसका काल ईसा की तीसरी-चौथी शती मानना होगा।" (पृ.११२)। ८: यापनीयपक्षी विद्वान् के एक और पूर्वापरविरोधी कथन पर दृष्टिपात कीजिए। पूर्व में वे यह स्वीकार करते हैं कि कसायपाहुड की गाथाओं के कर्ता गुणधर थे और आर्यमंक्षु और नागहस्ती को वे आचार्यपरम्परा से प्राप्त हुई थीं। किन्तु बाद में मान्य विद्वान् के ध्यान में आया कि कसायपाहुड में गुणस्थानसिद्धान्त विद्यमान है, अतः उसे यदि आर्यमंक्षु और नागहस्ती के पूर्व निर्मित स्वीकार किया जाय, तो गुणस्थानसिद्धान्त बहुत प्राचीन सिद्ध हो जाता है। इसलिए वे अपने पूर्व बयान से हट गये और यह नया बयान जारी कर दिया २. “यह तो निर्विवाद है कि यह सिद्धान्तग्रन्थ आर्यमंक्षु और आर्य नागहस्ती को प्राप्त था। --- वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ आर्यमंक्षु और नागहस्ती की उस अविभक्त परम्परा में निर्मित हुआ है ---।" (जै.ध.या.स. / पृ.८५ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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