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________________ ७१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१२ / प्र०१ ४. एक ओर उक्त विद्वान् कहते हैं-"(कसायपाहुड के कर्ता) आचार्य गुणधर कौन थे और किस परम्परा के थे, इसकी सूचना हमें न तो प्राचीन श्वेताम्बर आगमिक स्थविरावलियों से और न ही दिगम्बर-पट्टावलियों से प्राप्त होती है।" (पृ.८२)। दूसरी ओर वे लिखते हैं कि श्वेताम्बर-पट्टावलियों में गुणधर का उल्लेख है। देखिए उनके शब्द-"प्राचीन दिगम्बर-पट्टावलियों में गुणधर, आर्यमंक्षु और नागहस्ती का, जो कि इसके (कसायपाहुड के) कर्ता या प्रणेता माने गये हैं, उल्लेख नहीं होने से और श्वेताम्बर-पट्टावलियों में इनका उल्लेख होने से यह सिद्ध होता है कि यह मूलतः दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है।" (पृ.८६-८७)। ५. एक तरफ वे आर्यमंक्षु और नागहस्ती को यापनीयसंघ की उत्पत्ति के पूर्व का मानते हैं, दूसरी तरफ उनके साक्षात् शिष्य यतिवृषभ को यापनीय मानते हैं। यह परस्परविरोध डॉक्टर सा० के निम्नलिखित कथनों से स्पष्ट होता है- ' "वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ आर्यमंक्षु और नागहस्ती की उस अविभक्त परम्परा में निर्मित हआ है. जिसका उत्तराधिकार समानरूप से यापनीयों को भी प्राप्त हुआ था। संभावना यही है कि आर्यमंक्षु और नागहस्ती से अध्ययन करके यतिवृषभ ने ही इसे शौरसेनी प्राकृत का वर्तमानस्वरूप प्रदान कर चूर्णिसूत्र की रचना की हो।" (पृ.८५)। "इतना निश्चित है कि आर्यमंक्षु और आर्य नागहस्ती न तो दिगम्बर-आचार्य हैं, और न यापनीय ही। यद्यपि इतना भी निश्चित है कि वे श्वेताम्बरों के समान यापनीयों के भी पूर्वज हैं।" (पृ.८७)। "हो सकता है कि इस पर चूर्णिसूत्रों के रचयिता यतिवृषभ यापनीय हों, क्योंकि यापनीयों में अपने नाम के आगे 'यति' शब्द लगाने की प्रवृत्ति रही है, जैसे-यतिग्रामाग्रणी भदन्त शाकटायन।" (पृ.८७)। ६. एक जगह पर पूर्वोक्त विद्वान् जयधवलाकार के इस कथन को माने लेते हैं कि आर्यमंक्षु और नागहस्ती से कसायपाहुड का अध्ययन कर यतिवृषभाचार्य ने चूर्णिसूत्रों की रचना की थी और वे स्वयं सिद्ध करते हैं कि आर्यमंक्षु और नागहस्ती का स्थितिकाल ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी था, जिसका तात्पर्य यह है कि उनके अनुसार यतिवृषभ भी प्रथम-द्वितीय शताब्दी में हुए थे, किन्तु दूसरी जगह पर वे लिखते हैं कि जयधवलाकार का यह कथन विश्वसनीय नहीं है। उनके प्रथम कथन पर दृष्टिपात कीजिए "अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर इतना निश्चित है कि ये सभी ईस्वी सन् की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी में हुए हैं। --- सम्भावना यही है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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