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अ० १२ / प्र० १
कसायपाहुड / ७१७
आगे चलकर उक्त ग्रन्थलेखक इसके यापनीयग्रन्थ होने का निषेध कर देते हैं — " यह ग्रन्थ यापनीय - परम्परा में निर्मित न होकर भी यापनीयों को उत्तराधिकार में मिला है।" (पृ.८७)।
२. फिर वे इसके श्वेताम्बरग्रन्थ होने का भी खण्डन करते हैं- " श्वेताम्बर - परम्परा में कोई भी शौरसेनी प्राकृत की रचना उपलब्ध नहीं है। अतः कसायपाहुड के वर्तमान स्वरूप को श्वेताम्बर - परम्परा की रचना तो नहीं कहा जा सकता, जैसा कि कल्याणविजय जी ने माना है।" (पृ.८५)।
इसके बाद वे इसे श्वेताम्बरों और यापनीयों की उत्तरभारतीय-अविभक्त-सचेलाचेलनिर्ग्रन्थ- मातृपरम्परा का ग्रन्थ बतलाते हैं। कसायपाहुड और समवायांगसूत्र में क्रोधादि भावों के जो समान पर्यायवाची उपलब्ध हैं, उनके उदाहरण देकर वे लिखते हैं
'इससे यही सिद्ध होता है कि कसायपाहुड उत्तरभारत की अविभक्त निर्ग्रन्थ परम्परा का ग्रन्थ है, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों को समानरूप से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था।" (पृ.८९)।
इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराधिकार में प्राप्त यह ग्रन्थ जैसे यापनीयों के पास शौरसेनी भाषा में उपलब्ध है, वैसे ही श्वेताम्बरों के पास अर्धमागधी में उपलब्ध होगा । पर यापनीयपक्षी विद्वान् ने, न तो अर्धमागधी में उपलब्ध किसी प्रति का उल्लेख किया है, न ही किसी श्वेताम्बरग्रन्थ या पट्टावली में यह उल्लेख मिलता है कि कसायपाहुड श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है अथवा उसके रचयिता गुणधर या आर्यमंक्षु एवं नागहस्ती हैं।
३. एक तरफ मान्य विद्वान लिखते हैं कि "सामान्यतया इस ( कसायपाहुड के प्रतिपाद्य विषय की ) चर्चा में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके आधार पर ग्रन्थ के सम्प्रदाय - विशेष का निश्चय हो सके।" (पृ. ८७) । दूसरी तरफ वे ऐसा 'कुछ' ढूँढ़ भी लेते हैं और उसकी स्वच्छन्द व्याख्या कर कसायपाहुड को अपनी मनः कल्पित श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा का ग्रन्थ घोषित कर देते हैं। उदाहरणार्थ, कसायपाहुड में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद तीनों के साथ नौवें गुणस्थान तक पहुँचने की बात कही गई है। इससे मान्य विद्वान् कसायपाहुड में स्त्रीमुक्ति का समर्थन मान लेते हैं और उसे श्वेताम्बर - यापनीय - मातृपरम्परा का ग्रन्थ घोषित कर देते हैं। वे लिखते हैं- " यदि कसायपाहुड के कर्त्ता यह स्वीकार करते हैं कि स्त्रीवेद की उपस्थिति में दसवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास संभव है, तो वे स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं कर सकते।" (पृ.८८)।
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