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________________ ७१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० १२ / प्र० १ यह तो यापनीयपक्षधर मान्य विद्वान् के पूर्वमत का उनके ही उत्तरमत से मिथ्या सिद्ध होने का प्रमाण है। निम्नलिखित प्रमाणों से भी वह मिथ्या सिद्ध होता है १. यापनीयपक्षधर मान्य विद्वान् ने जिस उत्तरभारतीय - सचेलाचेल - श्वेताम्बरयापनीय- मातृपरम्परा में कसायपाहुड की रचना मानी थी, उसका अस्तित्व ही नहीं था। वह उन्हीं के द्वारा कल्पित है। यह द्वितीय अध्याय के तृतीय प्रकरण में दर्शाया जा चुका है। २. जिस परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, उसमें कसायपाहुड के रचे जाने तथा श्वेताम्बरों और यापनीयों को उत्तराधिकार में प्राप्त होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः उक्त परम्परा से श्वेताम्बरों और यापनीयों को कसायपाहुड उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था, यह मत भी मिथ्या है। ४ दूसरा मत कसायपाहुड के सम्प्रदाय का अनिर्णायक दूसरे मत में तो यापनीयपक्षधर विद्वान ने गुणधर, आर्यमंक्षु, नागहस्ती और यतिवृषभ, इनमें से किसी को भी कसायपाहुड का कर्त्ता स्वीकार नहीं किया है और किसी पाँचवे को उसका कर्त्ता बतला नहीं सके। इससे भी सिद्ध है कि वह न यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, न श्वेताम्बरपरम्परा का, न श्वेताम्बर - यापनीयों की मातृपरम्परा का । ५ निरन्तर बदलते हुए पूर्वापरविरोधी मत जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ का कसायपाहुड-प्रकरण निरन्तर बदलते हुए पूर्वापरविरोधी मतों से भरा पड़ा है। यह इस बात का सबूत है कि ग्रन्थलेखक के पास कसायपाहुड को यापनीयपरम्परा या उसकी मनःकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल- मातृपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं था । लेखक ने कपोलकल्पित हेतुओं के द्वारा उसे हठात् उक्त परम्पराओं का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए पसीना बहाया है। इसी के फलस्वरूप पूर्वापरविरोधों की उत्पत्ति हुई है। उपर्युक्त ग्रन्थ में लेखक के पूर्वापरविरोधी मतों के उदाहरण इस प्रकार हैं Jain Education International १. शुरू में वे कहते हैं- " षट्खण्डागम, कसायपाहुड, भगवती आराधना, मूलाचार जैसे महत्त्वपूर्ण शौरसेनी आगमिक ग्रन्थ यापनीय - आचार्यों की ही कृतियाँ हैं।" (पृ. ८२) । इसी बात को वे इन शब्दों में दुहराते हैं- "यही बोटिकपरम्परा आगे चलकर यापनीय कहलायी। कसायपाहुड इसी बोटिक या यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है।" (पृ. ८४) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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