________________
अ० १२ / प्र०१
कसायपाहुड / ७१५ २. आर्यमंक्षु और नागहस्ती का समय ई० सन् की द्वितीय शताब्दी है, इसलिए वे कसायपाहुड के रचयिता नहीं हो सकते। मात्र यही माना जा सकता है कि उसकी रचना का आधार उनकी कर्मसम्बन्धी अवधारणाएँ हैं। (जै.ध.या.स/ पृ.११२)।
३. चूँकि गुणधर आर्यमंक्षु और नागहस्ती के गुरु थे, इसलिए इनसे भी पूर्ववर्ती होने के कारण गुणधर को भी तीसरी-चौथी शती ई० में रचित कसायपाहुड का कर्ता नहीं माना जा सकता।
४. यतिवृषभ ने कसायपाहुड पर केवल चूर्णिसूत्र लिखे थे और वे छठी-सातवीं शताब्दी ई० में हुए थे, अतः उन्हें भी कसायपाहुड का रचयिता मानना संभव नहीं।
इन चार आचार्यों के अतिरिक्त अन्य किसी का नाम कसायपाहुड के साथ जुड़ा नहीं है, अतः अन्य किसी को उसका कर्ता मानने का प्रश्न नहीं उठता। इस प्रकार इस दूसरे मत में यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक डॉ० सागरमल जी कसायपाहुड के कर्ता का ही निर्णय नहीं कर पाते, अतः उसके सम्प्रदाय के निर्णय का प्रश्न ही निरस्त हो जाता है।
दूसरे मत से पहले मत का निरसन यापनीयपक्षी मान्य विद्वान् का दूसरा मत पहले मत को मिथ्या सिद्ध कर देता है जिससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि उसकी पुष्टि के लिए उन्होंने जितने भी हेतु उपस्थित किये थे, वे सब मिथ्या थे, मनगढंत थे। पहले मत के मिथ्या सिद्ध हो जाने से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं
१. कसायपाहुड की रचना श्वेताम्बरों और यापनीयों की तथाकथित उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-मातृपरम्परा में नहीं हुई थी। अतः वह उस परम्परा का ग्रन्थ नहीं है।
२. इसलिए न तो वह श्वेताम्बरों को उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था, न यापनीयों को।
३. वर्तमान कसायपाहुड शौरसेनी प्राकृत में है, इसलिए वह श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है। यह उक्त मान्य विद्वान् का ही मत है।
४. कसायपाहुड के कर्ता के रूप में गुणधर के अतिरिक्त अन्य कोई भी आचार्य प्रसिद्ध नहीं हैं और वे यापनीय थे नहीं, इसलिए वह यापनीय-आचार्य द्वारा भी रचित नहीं है। उक्त मान्य विद्वान् ने भी स्वीकार किया है कि वह यापनीय-परम्परा में निर्मित नहीं हुआ था। (जै.ध.या.स./ पृ.८७)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org