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________________ ७१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० १२ / प्र० १ (जै.ध.या.स./ पृ. ८५) । चूँकि यह यतिवृषभ को प्राप्त हुआ था, इसलिए वे यापनीयआचार्य थे। ५. यतिवृषभ के नाम के आदि में यति शब्द जुड़ा हुआ है। इसका प्रयोग यापनीय आचार्य अपने नाम के साथ करते थे। अतः यतिवृषभ यापनीय थे । (जै. ध. या.स./पृ. ८७)। ६. कसायपाहुड में स्त्री, पुरुष और नपुंसकों के अपगतवेदी होकर चतुर्दशगुणस्थान तक पहुँचने की बात कही गई है, जिससे उसमें स्त्रीमुक्ति का समर्थन है। (जै. ध. या. स./पृ.८७,८८) यह उसके श्वेताम्बर -यापनीय मातृपरम्परा का ग्रन्थ होने का प्रमाण है । ७. कसायपाहुड और श्वेताम्बर - आगम समवायांग में क्रोध, मान, माया और लोभ के समान पर्यायवाचियों का वर्णन है। इससे कसायपाहुड श्वेताम्बर - यापनीयमातृपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध होता है। (जै. ध. या.स./पृ. ८९) । ८. ग्रन्थकार, चूर्णिसूत्रकार तथा जयधवला - टीकाकार के मतों में कहीं-कहीं भेद है, जिससे सिद्ध होता है कि कसायपाहुड के कर्त्ता श्वेताम्बर - यापनीय मातृपरम्परा के आचार्य थे, चूर्णिकार यापनीयपरम्परा के और जयधवलाकार दिगम्बरपरम्परा के । (जै. ध.या.स./पृ.८८) । ९. श्वेताम्बरपरम्परा का अर्धमागधी - कसायपाहुड उपलब्ध नहीं है । जो उपलब्ध है वह शौरसेनी में होने से श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं है। (जै. ध. या.स./ पृ. ८६ ) । वह श्वेताम्बर - यापनीय- मातृपरम्परा का ग्रन्थ है, जिसका यतिवृषभ ने शौरसेनीकरण किया है। २ दूसरा मत और उसके पोषक हेतु १. कसायपाहुड में गुणस्थानसिद्धान्त पूर्णविकसित रूप में उपलब्ध होता है। इससे सिद्ध होता है कि उसकी रचना तब हुई थी, जब गुणस्थानसिद्धान्त ने धीरे-धीरे विकसित होते हुए अपना अन्तिम स्वरूप ग्रहण कर लिया था, अर्थात् तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी ई० में। (जै. ध. या.स./ पृ. ११२ ) । १. डॉ० सागरमल जी ने तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ (पृ. ११२) में ईसा की दूसरी-तीसरी शती माना है, जबकि उन्होंने ही साध्वी विद्युत्प्रभाश्री द्वारा अनुवादित 'जीवसमास' की भूमिका (पृ.ii) में ईसा की तीसरी चौथी शती बतलाया है। उनके इस द्वितीय मत के अनुसार गुणस्थानसिद्धान्त ने अपना अन्तिम स्वरूप ईसा की पाँचवीं छठी शती में ग्रहण किया था । अतः वे कसायपाहुड का रचनाकाल ईसा की पाँचवीं छठी शताब्दी भी मानते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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