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द्वादश अध्याय
कसायपाहुड
प्रथम प्रकरण
यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु
डॉ० सागरमल जी ने कसायपाहुड के सम्प्रदाय के विषय में परस्पर विरोधी दो मत प्रतिपादित किये हैं और उनके पक्ष में जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय नामक ग्रन्थ में निम्नलिखित हेतु प्रस्तुत किये हैं
१
पहला मत और उसके पोषक हेतु
१. कसायपाहुड श्वेताम्बरों और यापनीयों की उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थमातृपरम्परा का ग्रन्थ है । यह श्वेताम्बरों और यापनीयों को इस परम्परा से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था । (जै.ध.या.स./पृ. ८९)।
२. दिगम्बरपट्टावलियों में कसायपाहुड के कर्त्ता गुणधर और आचार्यपरम्परा से उसका ज्ञान प्राप्त करनेवाले तथा यतिवृषभ को उसकी शिक्षा देनेवाले आर्य मंक्षु और नागहस्ती के नाम नहीं मिलते। अतः ये दिगम्बरपरम्परा के आचार्य नहीं थे। (जै.ध.या.स./ पृ. ८२, ८३, ८६ ) ।
३. आर्यमंक्षु (आर्यमंगु) और नागहस्ती के नाम श्वेताम्बर - स्थविरावलियों में मिलते हैं। अतः वे श्वेताम्बरों और यापनीयों की उत्तरभारतीय - सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-मातृपरम्परा आचार्य थे। (जै. ध. या.स./ पृ. ८३, ८५, ८७ ) । यतिवृषभ ने उनसे अर्धमागधी में रचित कसायपाहुड का अध्ययन कर उसे शौरसेनी में रूपान्तरित किया और उस पर चूर्णिसूत्र रचे । (जै.ध. या.स./पृ.८५, ८७)।
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४. उत्तरभारत की सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ- श्वेताम्बर - यापनीय - मातृपरम्परा में रचित होने से यह ग्रन्थ उत्तराधिकार में श्वेताम्बरों और यापनीयों को ही प्राप्त हो सकता था, दक्षिणभारत में उत्पन्न हुई एकान्त - अचेलमार्गी दिगम्बर- परम्परा के आचार्यों को नहीं ।
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