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________________ अ०११/प्र०९ षट्खण्डागम / ७०९ इन वक्तव्यों में साध्वी जी ने दिगम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं को अचेल माना है और षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार आदि को अचेलपरम्परा से सम्बद्ध मानकर दिगम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं का ग्रन्थ बतलाया है। किन्तु उन्होंने यापनीयपरम्परा को दिगम्बरपरम्परा का अंग, दिगम्बरपरम्परा का एक उपसम्प्रदाय और दिगम्बरपरम्परा का रूप मानकर यह मान्यता प्रकट की है कि 'दिगम्बरपरम्परा मूल एवं पूर्ववर्ती है तथा यापनीयपरम्परा उससे उद्भूत अत एव उत्तरवर्ती है। अतः षट्खण्डागम, कसायपाहुड, भगवती-आराधना एवं मूलाचार मूलतः दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थ हैं, यापनीयपरम्परा को वे दिगम्बरपरम्परा से उत्तराधिकार में प्राप्त हुए थे।' तथापि साध्वी जी ने दिगम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं को अचेलता का सम्पोषक मानकर उनमें जो एकत्व (अभेद) दर्शाने का प्रयास किया है, वह प्रमाणविरुद्ध है। दोनों परम्पराओं में एकत्व होना तो दूर की बात, ये एक-दूसरे के अत्यन्त विरुद्ध हैं। यथा १. दिगम्बर और यापनीय दोनों परम्पराएँ अचेलता की सम्पोषक नहीं है, केवल दिगम्बरपम्परा अचेलता की सम्पोषक है। यापनीयपरम्परा अचेलता और सचेलता दोनों की सम्पोषक थी, क्योंकि वह केवल अचेललिंगधारी (जिनकल्पी) मुनि को ही मोक्ष का पात्र नहीं मानती थी, अपितु सचेललिंगधारी (स्थविरकल्पी) मुनि को भी मोक्ष का अधिकारी मानती थी। इसका प्ररूपण यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्त्रीनिर्वाणप्रकरण नामक लघुग्रन्थ की १० वीं कारिका से लेकर २१वीं कारिका तक किया है। (देखिये, 'मूलाचार' नामक पञ्चदश अध्याय / प्रकरण १ / शीर्षक २)। २. सवस्त्रमुक्ति. की निषेधक होने से दिगम्बरपरम्परा स्त्रियों, गृहस्थों और अन्यलिंगी साधुओं को मुक्ति का अधिकारी नहीं मानती, किन्तु यापनीयपरम्परा मानती थी। इससे भी सिद्ध है कि यापनीयसम्प्रदाय अचेलत्व और सचेलत्व दोनों का समर्थक था। इन दो प्रमाणों से निर्णीत होता है कि दिगम्बरपरम्परा अचेलत्व की निरपवादरूप से सम्पोषक है, किन्तु यापनीयपरम्परा निरपवादरूप से सम्पोषक नहीं थी। उसने अचेलत्व को वैकल्पिकरूप में स्वीकार किया था। अतः दोनों में एकत्व मानकर यापनीयपम्परा को दिगम्बरपरम्परा का ही अंग, दिगम्बरपरम्परा का एक उपसम्प्रदाय या दिगम्बरपरम्परा का रूप मानना एक अत्यन्त मिथ्या आकलन है। वह न तो दिगम्बरपरम्परा का अंग थी, न उसका एक उपसम्प्रदाय, न उसका रूप। उसका उद्भव श्वेताम्बरपरम्परा से हुआ था, यह डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार किया है तथा यह मुख्यतः इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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