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________________ ७०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०९ आधार पर ही निर्मित हुए हैं।" (प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा / अध्याय ३ / पृ.८४)। "जहाँ तक षट्खण्डागम की परम्पराओं का प्रश्न है, सामान्यतया षट्खण्डागम को दिगम्बरपरम्परा में आगमतुल्य ग्रन्थ के रूप में स्वीकृत प्राप्त है। यद्यपि डॉ० सागरमल जी जैन ने 'जैनधर्म का यापनीसम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ में इसे यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ माना है और इसके लिए अनेक प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं, फिर भी यापनीयसम्प्रदाय कुछ मतभेदों के साथ मूलतः तो अचेलपरम्परा का ही पक्षधर रहा है, इसमें कहीं कोई विवाद भी नहीं है। डॉ० सागरमल जी ने भी यापनीय-सम्प्रदाय को अचेलपरम्परा से ही सम्बन्धित माना है। अतः इस विवाद का कोई अर्थ नहीं रह जाता है कि यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है या यापनीयपरम्परा का, क्योंकि यापनीयपरम्परा भी मूलतः दिगम्बरपरम्परा का ही अंग है, उसका ही एक उपसम्प्रदाय है। यह बात अलग है कि यापनीय-सम्प्रदाय स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि कुछ बातों में श्वेताम्बरपरम्परा से सहमति रखता है, किन्तु इस आधार पर उसे श्वेताम्बर तो नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह भी अचेलता का इतना ही सम्पोषक है, जितनी दिगम्बरपरम्परा।" (वही / अध्याय ३ / पृ.८४-८५)। "दिगम्बरपरम्परा में भगवती-आराधना को आगमतुल्य एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। यद्यपि डॉ० सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में इसको यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ माना है। यापनीयपरम्परा आगमों और स्त्रीमुक्ति की सम्पोषक होते हुए भी मुनि की अचेलता की ही पक्षधर रही है, इस दृष्टि से वह दिगम्बरपरम्परा का ही रूप मानी जाती है।" (वही / अध्याय ३ / पृ. १७३)। "मूलाचार दिगम्बरपरम्परा में मुनि-आचार से सम्बन्धित एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। भगवती-आराधना के समान ही, इस ग्रन्थ की मूलपरम्परा दिगम्बर या यापनीय है, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। पण्डित नाथूराम जी प्रेमी, डॉ० सागरमल जैन आदि कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह ग्रन्थ यापनीयपरम्परा का है। किन्तु यदि हम समन्वय की दृष्टि से कहना चाहें, तो इतना निर्विवादरूप से कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ मुख्यतः अचेलपरम्परा का सम्पोषक है तथा यापनीय और दिगम्बर दोनों की परम्पराएँ अचेलता की सम्पोषक रही हैं।' (वही / अध्याय ३ / पृ. १७८)। "तृतीय अध्याय में दिगम्बरपरम्परा तथा यापनीयपरम्परा में मान्य आगमतुल्य ग्रन्थों यथा-कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती-आराधना एवं आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उपलब्ध गुणस्थान-सम्बन्धी विवरण को सहयोजित किया गया है।" (वही/ स्वकथ्यम् / पृ.४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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