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________________ अ०११ / प्र०९ षट्खण्डागम / ७०७ ५. “---दिगम्बरपरम्परा में षटखण्डागमकार ने एवं आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी से लेकर तत्त्वार्थसूत्र के सभी टीकाकारों ने इसकी ( गुणस्थानों की) अपेक्षाकृत विस्तृत चर्चा की है।" ( वही / पृ.४) । यहाँ प्रश्न उठता है कि जब डॉक्टर सा० ने नौ वर्ष पूर्व लिखे गये अपने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ में षट्खण्डागम को अपनी दृष्टि से यापनीयग्रन्थ सिद्ध किया था और उसके दिगम्बरग्रन्थ होने की मान्यता को जोर-शोर से खण्डन किया था, तब नौ वर्ष बाद साध्वी दर्शनकलाश्री जी के उपर्युक्त शोधग्रन्थ के प्राक्कथन में उसे हर बार दिगम्बरग्रन्थ नाम से सम्बोधित क्यों किया ? यदि वह उनकी दृष्टि से वास्तव में यापनीयग्रन्थ है, दिगम्बरग्रन्थ नहीं है, तो यहाँ उसे यापनीयग्रन्थ न कहकर दिगम्बरग्रन्थ कहने का मिथ्यावचनाचार क्यों किया ? किसी भी दृष्टि से इस मिथ्यावचना - चार का औचित्य सिद्ध नहीं होता। इससे सिद्ध है कि डॉक्टर सा० ने मिथ्याकथन न कर सत्यकथन किया है। नौ वर्ष के लम्बे अन्तराल में बहुशः चिन्तन-मनन से उन्हें इस सत्य की प्रतीति हुई कि षट्खण्डागम यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। इसलिए उन्होंने यहाँ अपनी भूल सुधार ली और इसे दिगम्बरग्रन्थ ही घोषित कर दिया । डॉक्टर सागरमल जी ने अपने जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा नामक ग्रन्थ में भी अपने कुछ पूर्वमतों में आमूलचूल परिवर्तन किया है। उदाहरणार्थ, उन्होंने यह मान लिया कि १. तीर्थंकर महावीर का निर्ग्रन्थसंघ सर्वथा अचेल था, २. अचेल निर्ग्रन्थसंघ से सचेल श्वेताम्बरसंघ का उद्भव हुआ था और ३. श्वेताम्बरसंघ से यापनीयसंघ की उत्पत्ति हुई थी । (देखिये, अध्याय २ / प्र. ३ / शी. ५) । उपर्युक्त मतपरिवर्तन भी इसी मतपरिवर्तन - श्रृंखला की एक कड़ी है । साध्वी दर्शनकलाश्री जी के मतानुसार षट्खण्डागम दिगम्बरग्रन्थ डॉ॰ सागरमल जी के निर्देशन में पूर्वोक्त शोधप्रबन्ध लिखनेवाली श्वेताम्बर साध्वी दर्शनकलाश्री जी ने दिगम्बर और यापनीय परम्पराओं के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में अत्यन्त भ्रान्तिग्रस्त रहते हुए भी षट्खण्डागम, कसायपाहुड, भगवती - आराधना और मूलाचार को दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध किया है। उनके निम्नलिखित वक्तव्यों से यह निर्णीत होता है “दिगम्बरपरम्परा के आगमतुल्य ग्रन्थों में षट्खण्डागम का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि दिगम्बरपरम्परा आगमसाहित्य का विच्छेद मानती है, किन्तु उसके अनुसार कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती-अ - आराधना आदि ग्रन्थ आगम- साहित्य के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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