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नवम प्रकरण
डॉ० सागरमल जी के मत में परिवर्तन
षटखण्डागम दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ डॉ० सागरमल जी ने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ ई० सन् १९९६ में लिखा था। इसके नौ वर्ष बाद उनके निर्देशन में आदरणीया श्वेताम्बर साध्वी दर्शनकलाश्री जी ने 'प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा' विषय पर शोधप्रबन्ध लिखा, जिस पर उन्हें ई० सन् २००५ में पी०-एच० डी० की उपाधि प्रदान की गयी। यह शोधप्रबन्ध ई० सन् २००७ में प्रकाशित हुआ। जब मेरा प्रस्तुत ग्रन्थ लिखा जा चुका था और उसका अन्तिम लिपिसंशोधन चल रहा था, तब डॉक्टर सा० की कृपा से मुझे उक्त शोधग्रन्थ की प्रति प्राप्त हुई। मैंने उसका अवलोकन किया और पाया कि डॉक्टर सा० ने उसके प्राक्कथन में षट्खण्डागम को यापनीयग्रन्थ न कहकर दिगम्बरग्रन्थ कहा है, और एक बार नहीं, अपितु जितनी बार षट्खण्डागम का उल्लेख किया है, उतनी बार उसके साथ 'दिगम्बरग्रन्थ' या 'दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ' विशेषण लगाया है। यथा
१. "दिगम्बरपरम्परा में गुणस्थानसिद्धान्त-सम्बन्धी सर्वप्रथम उल्लेख षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में मिलता है।" (वही / प्रस्ता: / पृ.२)।
२. "दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम में भी इन १४ अवस्थाओं को पहले 'जीवसमास' के नाम से उल्लेखित किया गया है, बाद में उन्हें 'गुणस्थान' नाम दिया गया है।" (वही / प्रस्ता./ पृ.३)।
३. "गुणस्थानों का जीवस्थानों, मार्गणास्थानों तथा आठ कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के उदय, उदीरणा, सत्ता, बन्ध और निर्जरा से क्या सहसम्बन्ध है, इसका उल्लेख जहाँ श्वेताम्बरपरम्परा में कर्मग्रन्थों और पंचसंग्रह में उपलब्ध होता है, वहीं दिगम्बरपरम्परा में यह विवेचन मुख्यतः षट्खण्डागम, गोम्मटसार (१०वीं शती) और दिगम्बर प्राकृत एवं संस्कृत पंचसंग्रहों में उपलब्ध है।" (वही / प्रस्ता./ पृ.३)।
४. "श्वेताम्बरपरम्परा में जीवसमास और दिगम्बरपरम्परा में षट्खण्डागम गुणस्थानसिद्धान्त के प्रथम आधारभूत ग्रन्थ हैं।" (वही / पृ.४)।
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